27 Feb 2007

जवाब : टैग-वार्ता के

ईपण्डित जी ने अपने चिट्ठे पर मुझे टैग कर पाँच यक्ष-प्रश्न पूछे हैं, जिनका सरल, सपाट, जवाब देने का प्रयास कर रहा हूँ।

१. कम्प्यूटर पर हिन्दी टाइपिंग के बारे में सबसे पहले आपने कब सुना और कैसे, अपने कम्प्यूटर में हिन्दी में सबसे पहले किस सॉफ्टवेयर में/द्वारा टाइप किया और कब, आपको उसके बारे में पता कैसे चला ?

उत्तर : सर्वप्रथम 1986 में Apple Machintos कम्प्यूर में हिन्दी डी.टी.पी. में सहयोग करना पड़ा था। 1990 में। जब हमारे कार्यालय में पी.सी. (XT), स्थापित हुए, उस काल में रैम सिर्फ 640K, हार्ड डिस्क सिर्फ 20 MB की आती थी। इस सीमित रिसोर्सेस में जटिल भारतीय भाषाओं/लिपियों का संसाधन सम्भव न था। अतः कानपुर आई.आई.टी. तथा सी-डैक द्वारा विशेष हार्डवेयर (GIST) कार्ड विकसित किया गया था, जिसके रोम-चिप्स में भारतीय भाषाओं के फोंट्स तथा प्रोग्रामों को सज्जित किया गया था। 1986 में भारत सरकार द्वारा सभी कम्प्यूटर प्रणालियाँ द्विभाषी (हिन्दी-अंग्रेजी) ही लगाने के आदेश जारी हो चुके थे। जिसके अनुपालन में 1991 में एक कम्प्यूटर में सी-डैक का हार्डवेयर GIST कार्ड लगाया गया था, जो डैटाबेस को PC-ISCII कूटों में तथा भारतीय भाषाओं के पाठ (Text) ISCII-1991 कूटों में संसाधित करता था।

इस पर सिर्फ INSCRIPT कुँजीपटल में ही काम हो पाता था। पहले से हिन्दी टाइपराइटर में अच्छी गति से टाइप का अभ्यस्त होने के कारण अत्यन्त कष्टकर अनुभव हुआ। हिन्दी टाइपराइटर कुञ्जीपटल को भूलने में काफी परिश्रम करना पड़ा। लगभग दो वर्ष लग गए।

२. आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में आगमन कैसे हुआ, इसके बारे में कैसे पता लगा, पहला हिन्दी चिट्ठा/पोस्ट कौन सा पढ़ा/पढ़ी ? अपना चिट्ठा शुरु करने की कैसे सूझी ?

उत्तर : हिन्दी चिट्ठे पिछले दो वर्षों से देखता/पढ़ता आया था। पहला चिट्ठा किसे कहूँ... किसे नहीं... याद नहीं कर पाता। लेखन का नशा तो बचपन से था। पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित कुछ शोध लेखों की प्रतियों की भारी मांग होती थी। अतः प्रतियाँ भेजने के झण्झट से बचने के लिए अपने कुछ उपयोगी लेख किसी वेबसाइट पर डालने की सोची। पहले याहू के जियोसिटिज में प्रयास किया, किन्तु सफलता न मिली, याहू में हिन्दी ई-मेल के बिगड़ने तथा बारम्बार view->encoding->Unicode/utf8 पर क्लिक करने से से तंग आकर जब जी-मेल में खाता खोला अनुनाद जी के निमन्त्रण पर तो अपना ब्लॉग बनाने का खुल-जा सिम-सिम हुआ। इसके पहले 'हिन्दी देवलोक' नाम ब्लॉग बनाया था old blogger से, id खो जाने के कारण फिर पहुँच नहीं पाया।


३. चिट्ठा लिखना सिर्फ छपास पीडा शांत करना है क्या ? आप अपने सुख के लिये लिखते हैं कि दूसरों के (दुख के लिये ;-) क्या इससे आप के व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन या निखार आया ? टिप्पणी का आपके जीवन में क्या और कितना महत्त्व है?

उत्तर : जिन्दगी में कुछ ठोकरें खाने के तो कुछ गाय की पूँछ पकड़कर आराम से लक्ष्य पर पहुँचने के जो अनुभव हुए हैं, उन्हें दूसरों को बाँट देना चाहता हूँ, ताकि दूसरे लोगों को वैसी ठोकरें न खानी पड़े और वे भी लक्ष्य तक आराम से पहुँच सकें।

टिप्पणियाँ ब्लाग में वैसी ही लगती हैं = जैसे कवि-सम्मलेन में आपकी कविता सुनकर स्रोताओं की तालियाँ

४. अपने जीवन की कोई उल्लेखनीय, खुशनुमा या धमाकेदार घटना(एं) बताएं, यदि न सूझे तो बचपन की कोई खास बात जो याद हो बता दें।

एक बार एक पहाड़ी पर एक पूर्णिमा की शाम को एक और सूर्यास्त हो रहा था, दूसरी ओर चन्द्रोदय। योग और ध्यान में मग्न था कुछ बन्धुओं के साथ... कुछ मिनटों तक सूर्य और चन्द्रमा दोनों ही बिल्कुल एक समान, एक जैसे दिखाई दिए... दिशाभ्रम-सा हो गया... अन्तर ही नहीं कर पाया कोई कि कौन-सा चाँद है और कौन-सा सूरज? दोनों की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से मन-मस्तिष्क के तरल-तन्त्रिका-तत्वों के सरिता-सागर में इतना बड़ा, इतना विशाल ज्वार आया..., आनन्दातिरेक छाया..., मन मस्ताया..., कुण्डलिनी जाग उठी.... सह्स्र-दल-कमल खिलने लगा... ... ...

बस... शब्दों में कैसे?... आप स्वयं अनुभव की परिकल्पना कर सकते हैं...

५. यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे?

उत्तर : हिन्दी समग्र विश्व-ब्रह्माण्ड की मौलिक भाषा हो..., समस्त कम्प्टूर प्रोग्रामिंग सिर्फ हिन्दी में हो.


अब मेरे कुछ प्रश्न हैं जिनका उत्तर अपेक्षित है सभी हिन्दी के विद्वानों से-- (अभी हिन्दी ब्लागिंग गुरुओं से सम्पर्क स्थापित कर रहा हूँ, जिन्हें टैग बाद में करूँगा।)

1. हिन्दी(देवनागरी) में कुल कितने अक्षर हैं? (सन्दर्भ: इस परिचर्चा में देखें।)

2. देवनागरी संगणन की दृष्टि के जटिल complex script में क्यों रखी गई हैं?

3. हिन्दी(देवनागरी) को अंग्रेजी से भी सरल बनाने के लिए क्या सुझाव देना चाहेंगे आप?

4. आपका सपने में किसे देखना पसन्द करेंगे?

5. अंग्रेजों ने भारतीय जनता पर अंग्रेजी थोपने के पहले क्या किया था?

24 Feb 2007

कम्प्यूटर स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग? - व्यंग्य

कार्यालय में नया कम्प्यूटर आया तो अनुभाग प्रमुख श्री दिनेश अग्रवाल को अंग्रेजी स्टेनो सुश्री डी॰ शान्ता ने आकर सूचना दी--

शान्ता: "सर! नई कम्प्यूटर आई है"।

दिनेश : "नया कम्प्यूटर आया है" बोलो, "आई है" नहीं।

शान्ता: "क्यों? इसमें क्या गलती है?"

दिनेश: "कम्प्यूटर" पुल्लिंग है, इसलिए आया है कहा जाएगा।"

शान्ता: "नहीं जी, यह तो एक मशीन है, इसलिए कम्प्यूटर स्त्रीलिंग होगी, "मशीन चलती है" कहते हैं, चलता है नहीं।"

दोनों आपस में झगड़ने लगे। दोनों के झगड़े का कोई भी तर्कपूर्ण समाधान नहीं कर पाया। कार्यालय प्रमुख के बाद यह बात मंत्रालय, और अन्ततः मन्त्री महोदय श्रीमान लालू जी के पास पहुँची सही निर्णय के लिए।

लालू ने पूछा- : "अच्छा! ई कम्प्यूटर है कहाँ, पहले हमें दिखाओ तो।"

लोग उन्हें टेबल पर रखे कम्प्यूटर के पास ले गए। देखकर लालू जी कहा--

लालू : "अरे! इस पर तो कवर ढँका हुआ है, इसे उतार कर सबलोग खुद ही देख लो ना!"

22 Feb 2007

एड्स से बचाती हैं या बढ़ाती है- डिस्पोजेबल सीरिंज?

संयुक्त राष्ट्र एड्स विरोधी अभियान के हिन्दी जालपृष्ठ पर एड्स से बचने के लिए जीवाणुहीन की गई सूई (injection) का प्रयोग करने की सलाई दी गई है। आजकल तो हरेक डॉक्टर या कम्पाउण्डर जब सूई के माध्यम से दवा को शरीर में प्रवेश कराते हैं, तो प्रयोज्य सूई (डिस्पोजेबल सीरिंज) का ही उपयोग करते हैं, जिसकी नली प्लास्टिक की बनी होती है तथा इसके मुहाने पर पतली सूई जंगरोधी इस्पात (स्टेनलेस स्टील) की बनी होती है। बारम्बार उपयोग की जा सकनेवाली काँच की सींरिज अब पुराने जमाने की बात हो गई है। किसी पुराने ग्रामीण अस्पताल में ही शायद देखने को मिले।

इस सूई का दुबारा उपयोग नहीं किया जाता। एक व्यक्ति को लगाने के बाद यह सूई तोड़कर फेंक दी जाती है। इससे किसी एक व्यक्ति के खून में यदि कोई विषाणु हों तो वह दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलता। यही इसका लक्ष्य है?

किन्तु प्रश्न उठता है कि क्या यह अपने लक्ष्य में सफल हुई है या असफल? यदि सफल हुई है तो दिनों दिन एड्स आदि महामारियाँ बढ़ती क्यों जा रही है? एड्स से पीड़ित रोगी तो फिर भी कुछ दिन, कुछ माह या कुछ वर्ष तक जी सकता है। किन्तु इससे भी भयंकर और शीघ्र जानलेवा सार्स, चिकनगुनिया, डेंगू आदि बीमारियाँ भी दिनोंदिन क्यों फैलती जा रही हैं?

वास्तविकता क्या है?

प्रत्यक्ष रूप से देखें तो कूड़ेदान में फेंक दी गई इन (use and throw) सीरिंज को पूरी तरह नष्ट नहीं किया जा सकता। वैसे भी विज्ञान के नियम के अनुसार कोई वस्तु कभी नष्ट नहीं होती, सिर्फ उसका रूप ही परिवर्तित होता है।

इन सीरिंजों का भी पुनःचक्रण(recycling) हो जाता है। कूड़ेदान से नगरपालिका के कचरे के डिब्बे में और वहाँ से बड़े-बड़े कूड़े के भण्डारों में फेंक दिया जाता है। किसी कूड़ेखाने के पास दिखाई देता है कि कचरे में से वस्तुएँ चुन-चुन कर उठानेवाले गरीब लोगों की भीड़ लगी रहती है। जो प्लास्टिक तथा अन्य वस्तुएँ चुनकर कबाड़ियों को बेचकर कुछ रोजी-रोटी कमा लेते हैं।

कबाड़ियों के भण्डार से प्लास्टिक, लोहा, काँच, कागज आदि वस्तुएँ विभिन्न कारखानों में पहुँच जाती है, जहाँ उनका पुनःचक्रण (re-cycling) किया जाता है। लोहा आदि धातुओं को तो फिर से उच्च ताप (लगभग 200 से 600 डिग्री सेंटीग्रेड) पिघलाकर पुनरुपयोग किया जाता है। जिससे इनमें विषाणु के रहने के मौके नगण्य ही होते हैं।

लेकिन प्लास्टिक-कूड़े को अल्प ताप (लगभग 45 डिग्री से 75 डिग्री सेंटीग्रेड तक) में ही पिघलाकर पुनरुपयोगी बनाया जाता है। जिसमें विषाणुओं के रहने का खतरा भरपूर रहता है। क्योंकि इससे अधिक ताप पर प्लास्टिक जल जाता है। जलकर प्लास्टिक भयंकर विषैली गैसों में बदलता है, जो वातावरण के लिए अत्यन्त हानिकारक होती हैं।

प्लास्टिक-कचरा तो बहुत ही टिकाऊ वस्तु है। प्लास्टिक बहुकाल तक नष्ट नहीं होती है और शहरों-गाँवों-पर्यटन स्थलों यहाँ तक की हिमालय में भी यत्र-तत्र-सर्वत्र प्लास्टिक-कचरा फैला पाया जाता है। प्लास्टिक का पुनरुपयोग (recycling) ही इससे निपटने का एकमात्र उपाय है।

अल्प ताप पर पिघलाकर रिसाइकल किया हुआ प्लास्टिक विषाणुओं से कदापि मुक्त नहीं हो पाता। प्लास्टिक के धारकों में खाद्य पदार्थ तो आम बात है, प्लास्टिक से निर्मित थैलियों, बर्तनों, कंटेनरों, बोतलों में औषधियाँ तक पैकिंग करके आपूर्ति की जाती है, यहाँ तक कि खून की बोतलें/पाउच भी प्लास्टिक के बने होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा जारी नियमों के अनुसार यह प्लास्टिक मेडिकली रूप से जीवाणुरहित किया गया आई॰एस॰ओ॰/आई॰एस॰आई॰ छाप का होने का दावा किया जाता है। किन्तु चूक हर कहीं होती है। अनेक मामलों में अधिकांश आपूर्तकों द्वारा इनमें प्रयोग किया जानेवाला प्लास्टिक भी पुनःचक्रित (recycled) प्लास्टिक होता है।

हाल ही में एड्स की रोकथाम के सम्बन्ध में आयोजित एक सम्मेलन में यह प्रश्न उठाया गया था। बुद्धिजीवियों ने हरेक खाद्य पदार्थ, औषधि या चिकित्सकीय कल-पुर्जों में प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाने मांग की।

प्लास्टिक के उपयोग का हर कहीं विरोध हो रहा है। किन्तु यही एकमात्र सस्ता और सुलभ साधन है- मुख्यतः पैकिंग आदि का। अतः इसके उपयोग को बन्द करना सम्भव नहीं हो पा रहा है। इसके कुछ विकल्प आविष्कृत तो हुए हैं, किन्तु व्यावसायिक रूप से सम्भाव्य और सफल नहीं हो पाए हैं।

अतः यहाँ इस सन्दर्भ में विशेषकर डिस्पोजेबल इंजेक्शन सीरिंज में प्लास्टिक के उपयोग को वर्जित किया जाना नितान्त आवश्यक है। इसके विकल्पों पर अनेक चर्चाएँ चलीं।

इस सम्बन्ध में कुछ ठोस तथ्य निम्नवत् हैं--

आजकल आधुनिक सभ्यता के अनुयायी शिक्षित नागरिकों में देखा जाता है कि वे अपने बच्चों के नाक या कान में छेद करवाने डॉक्टरों के पास ले जाते हैं, जो मेडिकली सुव्यवस्थित तरीके से जीवाणु रहित सूई से नाक-कान में छेद करते हैं और प्रोलीन का तार बाँध देते हैं, जो एण्टीसेप्टिक होता है। फिर भी देखा जाता है कि इसे निकालने के कुछ दिन बात नाक-कान के छिद्र में संदूषण (infection) हो जाता है या नाक-कान के छिद्र के घाव पक कर काफी तकलीफ पहुँचाते हैं।

दूसरी ओर प्राचीन परम्पराओं का अनुसरण करनेवाले नागरिक अपने बच्चे को सुनार के पास ले जाकर नाक-कान बिँधवाते हैं। सुनार शुद्ध सोने (लगभग 24 कैरेट) का तार अति गर्म करके ठण्डा करता है और उष्म तार की नोंक से नाक-कान में छेद करके उसी तार को मोडकर तत्काल रिंग जैसा बनाकर नाक या कान में पहना देता है। ऐसे छिद्रित किया नाक-कान संदूषित (infected) होकर कभी नहीं पकता, शायद ही इसके अपवाद स्वरूप एकाध उदाहरण सामने आए हों।

विज्ञान-सम्मत विचार है कि सोना(Gold) सर्वोधिक संदूषण-रोधी (anti-septic) धातु है। दूसरा नम्बर चाँदी(Silver) का आता है। तीसरा नम्बर ताम्बे(Copper) का आता है। आजकल भी कई कम्पनियों के महंगे विभिन्न जलशोधन यन्त्रों (water-filters) में चाँदी का उपयोग किया जाता है। राजा-महाराजा सोने-चाँदी के बर्तनों में भोजन करते थे। कई घरों में देखा जाता है कि वे पीने के पानी के घड़ों में तथा जलशोधकों (water-filters) में सोने या चाँदी तथा ताम्बे के चम्मच या छोटे टुकड़े डालकर रखते हैं। ताकि पानी शुद्ध रहे और उसका स्वाद भी अच्छा महसूस हो और शक्तिवर्द्धक खनिज लवण युक्त हो। इसके विपरीत लोहा सर्वाधिक संदूषण-प्रभावी होता है। वास्तु, फेंगसूई, प्राकृतिक चिकित्सा के नियमों के अनुसार आजकल अनेक सम्पन्न लोग ताम्बे के जग में रखा हुआ पानी चाँदी के गिलास से पीते दिखाई देते हैं। स्टेनलेस स्टील भले ही जंगरोधी हो किन्तु संदूषण-रोधी नहीं।

अधुनातम प्रयोगों में प्लाटिनम् धातु को सर्वाधिक महंगा, मजबूत, टिकाऊ और संदूषण-रोधी माना जाता है। दाढ़ी व बाल काटनेवाली महंगी ब्लेड प्लाटिनम के लेप-युक्त (platinum coated) आती हैं। जो सामान्य ब्लेड की तुलना में अनेक दिनों तक प्रयोग की जा सकती है।

अतः हमारा विनम्र विचार है कि चिकित्सा के क्षेत्र में प्रयोग की जानेवाली सूई (injection syringe) प्लाटिनम् लेपयुक्त शुद्ध सोने (24 कैरेट) की तथा इसकी नली शुद्ध चाँदी की होनी चाहिए, ताकि प्राकृतिक रूप से संदूषण-रोधी हो। सामान्य आग में इसे सामान्य गर्म करके या विभिन्न एण्टी-सेप्टिक औषधियों/रसायनों (chemicals) से धोकर जिसे पूर्ण शुद्ध बनाकर फिर से उपयोग किया जा सके। वैसे भी कोई सोने-चाँदी को कदापि फेंकेगा तो नहीं।

डिस्पोजेबल, प्रयोग करो और फेंको (use and throw) के विचार को जड़ से ही मिटाना आवश्यक है, हर ऐसी वस्तु चाहे वह लिखनेवाली पेन, डॉन पेन की रिफिल्ल ही क्यों न हो। क्योंकि ये हमारी प्यारी पृथ्वी पर सिर्फ कूड़े-करकट के ढेर ही बढ़ाती हैं।

समस्त बुद्धिजीवियों, चिकित्सकों, विश्व स्वास्थ्य संगठन और सभी सम्बन्धित महानुभावों का ध्यानाकर्षण करते हुए अनुरोध है कि यदि संसार भर में बढ़ते जा रहे रोगों को वास्तव में रोकना चाहते हैं तो प्लास्टिक की बनी डिस्पोजेबल सीरिंजों के उपयोग पर तत्काल प्रतिबन्ध लगाया जाए, तथा शुद्ध सोने-चाँदी से निर्मित इंजेक्शन सीरिंज को प्रचलित करने की व्यावहारिकता, व्यावसायिक सम्भाव्यता और कार्यकारिता की ओर खुले दिमाग से विचार करके निर्णय लेकर यथाशीघ्र आदेश जारी किए जाएँ।

21 Feb 2007

एड्स की प्राकृतिक चिकित्सा

संयुक्त राष्ट्र एड्स रोकथाम अभियान का हिन्दी वेबपन्‍ना देखा। हिन्दी में इस बारे में जानकारियाँ पाकर भारतीय जनता अवश्य ही लाभान्वित होगी। महामारी एड्स अभी तक लाइलाज है और दिनों दिन अधिकाधिक लोगों में फैलती जा रही है। जन्मजात बच्चे भी इससे बचे नहीं रह सकते।

एड्स की रोकथाम हेतु विभिन्न अभियान फिलहाल इससे बचने की जानकारियों प्रदान करने तक सीमित हैं। हजारों अनुसन्धान अवश्य चल रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई सही इलाज या उपचार या टीका सफलता के साथ घोषित नहीं हो पाया है।

किसी समस्या के समाधान या निवारण के पूर्व उसके कारण जानना आवश्यक हैं। अतः देखें कि एड्स के कारण क्या है?

एड्स का कारण है- मानवीय रोग-प्रतिरक्षा न्यूनता विषाणु (Human Immuno deficiency Virus)

जैसा कि इसके नाम के प्रथम शब्द "मानवीय... (Human)" से ही स्पष्ट है- यह सिर्फ मनुष्यों पर ही आक्रमण करता है। किसी अन्य पशु-पक्षी, कीट-पतंग, मच्छर आदि पर प्रभाव नहीं डाल पाता। आखिर क्यों? इसका क्या कारण है--

देखा जाता है कि पशु-पक्षीगण प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं। पशु-पक्षी अपनी संगम-ऋतु (Mating season) में ही समागम करते दिखाई देते हैं।

कोयल बसन्त ऋतु में ही मधुर स्वर में कूकती है - अपने साथी को पुकारने हेतु।

कुत्ते-बिल्लियाँ भी अपनी ऋतु में ही संगम करते दिखाई देते हैं। कहते हैं कि शेर तो वर्ष में सिर्फ एक ही बार संगम करता है। सुना है कि मोर की तो अत्यन्त पावन रूप से प्रजनन क्रिया होती है। मच्छर आदि कीट का प्रजनन भी विशेष ऋतु में ही अधिक तीव्रता से बढ़ता दिखाई देता है।

किन्तु इसके विपरीत आजकल अधिकांश मानव न तो पूर्णिमा, अमावस्या, एकादशी आदि तिथियों, वृहस्पतिवार जैसे वार, रामनवमी, जन्माष्टमी, गोपाष्टमी, दीपावली आदि पावन उत्सवों के अवसरों पर संयम आदि का कोई धार्मिक नियम का पालन करते हैं, न ही संगम के पूर्व शास्त्रों की विधि अनुसार स्नान या शुद्धता को व्यवहार में लाते हैं। प्राकृतिक रूप से ऋतु विशेष में ही संगम के नियम का अनुपालन तो बहुत दूर की बात है।

आगे के शब्दों "रोग-प्रतिरक्षा न्यूनता (Immuno deficiency)" से स्पष्ट है कि मानव की स्वाभाविक रोग-प्रतिरक्षा क्षमता में कमी होना ही एड्स का कारण है। अतः यदि किसी प्रकार मानव की रोग-प्रतिरक्षा क्षमता को बढ़ाया जा सके तो एड्स को काफी हद तक निष्प्रभावी किया जा सकता है।

प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार यहाँ कुछ प्रभावी उपाय दिए जा रहे हैं, जो सरल एवं काफी हद तक कारगर पाए गए हैं।

(1) संयम पालन

सर्वप्रथम आवश्यकता है कि मन को यथासंभव संयमित रखने, मन को आध्यात्मिक चिन्तन में लगाए रखने, सकारात्मक निश्चयात्मक सोच में व्यस्त रखने और शरीर के सबसे मूल्यवान शक्ति-तत्व (वीर्य) को और बेकार नष्ट करने से बचे रहने की। प्रकृति के नियमों का पालन करना इस सन्दर्भ में सर्वाधिक उपयोगी होता है।

(2) अंकुरित अन्न का प्रयोग :

प्राकृतिक चिकित्सा के मूल सिद्धान्त में प्रमुख है प्राकृतिक आहार। यथासंभव प्राकृतिक रूप में ही शुद्ध शाकाहारी आहार लिया जाना चाहिए। जैसे- पके हुए ताजा फल, बिना उबाले गए, या पीसे गए अन्न आदि।

आजकल लोग अधिकांशतः अप्राकृतिक या कृत्रिम आहार लेते हैं। डिब्बा-बन्द, प्लास्टिक की थैलियों में बन्द फास्ट फूड आदि आजकल बच्चों-बच्चों में लोकप्रिय हो गए हैं। जो मानव शरीर को ही नहीं, व्यवहार को भी कृत्रिम बना गए हैं।

उदाहरण के लिए किसी अन्न को लीजिए- मूँग या गेहूँ के दाने? इन्हें यदि हम तोड़ दें, पीस दें या उबाल दें। फिर जमीन में बोयें तो क्या उनके अंकुर निकलेंगे? नहीं। क्यों? क्योंकि ये मर चुके होंगे। इनका प्राणतत्व निकल चुका होगा। इसप्रकार देखें तो मानव का आजकल अधिकांश आहार पकाया गया, पीसा गया, तला गया होता है। अर्थात् मृत आहार, जिसमें जीवनी शक्ति नहीं होती।

इसके विपरीत अंकुरित अन्न में प्रबल जीवनी शक्ति होती है तथा कई प्रकार के विशेष विटामिन तथा तत्व पाए जाते हैं। कहा गया है कि यदि प्रतिदिन भलीभाँति चबाकर अंकुरित अन्न खाया जाए तो नपुंसक भी बलवान बन जाता है, नेत्रज्योति वापस आ सकती है, चश्मा छूट सकता है।

अंकुरित अन्न (मूँग, चना, गेहूँ, सोयाबीन आदि) को कम से कम 12 घण्टे सादे पानी में भिगाने के बाद किसी कपड़े में बाँध कर लटका दिया जाता है। अगले दिन उसमें अंकुर निकल आते हैं। इस अंकुरित अन्न में स्वाद अनुसार अल्प नमक, चीनी या नीम्बू का रस मिलाकर धीरे धीरे भली भाँति चबाकर खाना चाहिए।

(3) सोया दुग्ध-कल्प

सोयाबीन में प्रचुर परिमाण में प्रोटीन तथा रोग-निरोधक तत्व पाए जाते हैं। सोयाबीन का दूध बनाकर इसे लेने पर रोग-निरोधक शक्ति काफी परिमाण में बढ़ती पाई गई है।

विधि:

सोयाबीन के बीजों को कम से कम 24 घण्टे तक पानी में भिगो दें। फिर ग्राईँडर में डालकर या सिल-बट्टे पर एकदम महीन पीस लें। इसमें उचित मात्रा में पानी मिलाकर साफ कपड़े से छान लें। यह तरल द्रव बिल्कुल दूध जैसा होगा। इसे उबाल कर स्वाद अनुसार चीनी मिलाकर हल्का गर्म-गर्म पीया जाता है। किन्तु पीने का तरीका अत्यन्त धीमा होना चाहिए। बिल्कुल धीरे धीरे चुस्की ले-लेकर। एक पाव दूध पीने में आधे घण्टे से कम समय न लगे जैसे। पूरी तरह मुँह की लार के साथ मिलकर पूर्व-पाचित रूप में पेट में जाना चाहिए।

सामान्य दुग्ध-कल्प में देशी गाय का दूध लिया जाता है। इसके प्रयोग से (प्रतिदिन 2 लीटर से 3 लीटर दूध तक) अत्यन्त दुर्बल एवं पतले व्यक्ति का भी 15-20 दिनों में ही वजन 5 से 10 किलो तक बढ़ता देखा गया है। एड्स की रोकथाम हेतु रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए सोयाबीन का दूध अधिक प्रभावी होगा।

(4) भाप स्नान, धूप-स्नान आदि

भाप का स्नान कराकर पसीने के माध्यम से रोगी के शरीर से विषैले तत्वों को पर्याप्त मात्रा में बाहर निकालने पर उसकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता स्वतः बढ़ती है। धूप-स्नान में रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए बारी बारी से लाल एवं हरे रंग के पारदर्शी (सैलोफैन पेपर आदि के) परदे के नीचे रोगी को लिटाकर सेंक देने से काफी लाभप्रद परिणाम मिलते हैं।

(5) प्राणायाम, योगासन एवं मुद्राएँ :

हालांकि यह प्राकृतिक चिकत्सा के सामान्य क्षेत्र से बाहर की बात होगी, किन्तु कुछ सरल एवं व्यावहारिक प्राणायाम, योगासन और योगमुद्राओं से शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता निश्चित रूप से काफी हद तक बढ़ने के अनेक प्रमाण मिले हैं। इनका विवरण अलग लेख में दिया जाएगा।

उपर्युक्त कुछ उपायों से भले ही एड्स पूरी तरह दूर न हो पाए, किन्तु निश्चित रूप से शरीर की रोग-निरोधक क्षमता अवश्य ही बढ़ेगी, मा.रो.न्यू.वि.(HIV) के प्रकोप में कमी आएगी और रोगों का मुकाबला करते हुए अधिक काल तक जीया जा सकेगा।

16 Feb 2007

तब, सब भगवान नहीं बन जाते??

चाँद बहुत सुन्दर है।
पर उस पर दाग है॥
गर दाग मिटाना तुम्हारे वश में नहीं।
दाग देख चाँद पर थूको नहीं॥

तुम्हारा थूक तुम्हीं पर पड़ेगा।
और तुम्हें पागल कहा जाएगा॥


घोड़ा, बैल, भैंसा, ऊँट हैं,
बड़े पुष्ट और बलवान।
पर, गाड़ी में जोते जाते,
कोमल नाक में नकेल डाल॥

सागर है अनन्त विशाल,
पर, उसका जल है खारा।
दीपक चारों ओर प्रकाश फैलाता,
पर उसके आधार तले, बसे अन्धेरा॥

हीरा है बहुत मूल्यवान,
पर वह होता है जहरीला।
उसे जब कोई चाट लेता,
खत्म हो जाती उसकी इहलीला॥

मोर के पंख बहुत सुन्दर,
पंख फैला कर वह झूम नाचता।
पर अपने बेडौल बदसूरत,
पैर देख वह रो पड़ता॥

कछुए की पीठ पर कठोर ढाल,
तलवार से मारो तो टूट जाती तलवार।
पर पेट है कितना नरम,
नन्हें काँटें में फँस होता शिकार॥

हाथी जानवरों में सबसे विशाल,
विशाल सूँड से छोड़ता फुहार।
पर नन्हीं-सी चींटी उसमें घुसने पर,
हो जाता उसका अकाल संहार॥

राम, कृष्ण, गाँधी, नेहरू, लाल, बाल, पाल।
अनेक महापुरुष कर गए अनेक कार्य महान॥
पर, उनसे भी कोई न कोई भूल हुई थी।
उनकी भी कोई न कोई कमजोरी तो थी॥

हर इन्सान में होते हैं अनेक विशेष गुण।
तो हरेक में है कमी, कोई न कोई अवगुण॥
यदि किसी से कभी कोई गलती न होती?
यदि किसी की कोई कमजोर नस न होती??

अहंकार से चूर रावण कहलाते।
या जब वे स्वयं को सम्पूर्ण पाते॥
तो फिर वे काबू में कैसे आते?
तब, सब भगवान नहीं बन जाते??

किसी में कोई कमजोरी देखकर।
दूसरों की किसी गलती को पकड़॥
उन पर हँसकर छीँटे कभी कसो नहीं।
यदि उसे सुधारना तुम्हारे वश में नहीं॥

हंस बनो, पर कौवा नहीं।
मोती चुगो, गन्दगी नहीं॥
दाग दूर करना तुम्हारे वश में नहीं।
दाग देख, कभी चाँद पर थूको नहीं॥

15 Feb 2007

इण्टरनेट में हिन्दी : समस्याएँ एवं सम्भावनाएँ

आज सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में कम्प्यूटर और इण्टरनेट के अनुकूल हुए बिना किसी भाषा या लिपि के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा। युनिकोड कोन्सोर्टियम (http://www.unicode.org/) द्वारा सूचना विनिमय के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मानक-कूट निर्धारित किए जाने के बाद संसार की लगभग सभी लिखित लिपियों के अक्षर-चिह्नों को अनुपम पहचान मिल गई है और अब ये सूचना विनिमय के लिए अमेरिकी मानक कूटों (ASCII) के सबसेट कोडपेज पर आश्रित नहीं हैं। हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के लिए भी युनिकोड मानक कूट निर्धारित हो चुके हैं तथा सभी कम्प्यूटर प्रचालन प्रणालियों, इण्टरनेट सेवा प्रदाताओं, वेबसाइट होस्टिंग करनेवाली संजाल-संस्थाओं द्वारा कार्यान्वित किए जा रहे हैं। इससे हिन्दी भाषा एवं देवनागरी लिपि में विश्व-संचार का मार्ग प्रशस्त हुआ है। हिन्दी में वेबसाइटों, ब्लॉग, ईमेल-समूह, ऑन-लाइन-परिचर्चा-समूह आदि की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है तथा भारी मात्रा में साहित्य तथा सूचना सामग्री इण्टरनेट पर आम व्यक्ति को हिन्दी में भी उपलब्ध हो रही है। संसार भर के लोग एक-दूसरे को वेबमेल पोर्टलों तथा चर्चा समूहों के माध्यम से भी हिन्दी में ई-मेल सन्देश भेज रहे हैं।अनेक हिन्दी पुस्तकें और रोचक साहित्य, कविताएँ, ज्ञान-विज्ञान की सूचनाएँ हिन्दी में भी इण्टरनेट पर मिल रही हैं। अनेक हिन्दी अखबारों के भी वेब-एडिशन इण्टरनेट पर उपलब्ध हैं।

अब हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में भी मोबाईल फोन पर संक्षिप्त सन्देश (SMS) की सुविधा उपलब्ध हो गई है। भारत सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा सी-डैक के सहयोग से प्रस्तुत किए गए ऑन-लाइन हिन्दी प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम मोबाईल फोन पर भी उपलब्ध कराए गए हैं।

इससे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी का महत्त्व बढ़ा है और अनेक देशों के लोग इण्टरनेट पर विभिन्न वेबसाइटों और ई-मेल समूहों के माध्यम से हिन्दी सीख रहे हैं तथा हिन्दी में अपने विचारों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। हिन्दी से जुड़ी समस्याओं के बारे में परस्पर चर्चा करके समाधान पाते हैं।

विश्व के प्रसिद्ध ज्ञानकोश एन्साईक्लोपीडिया के अनुरूप इण्टरनेट पर ऑनलाइन बहुभाषी ज्ञानकोश में "http://hi.wikipedia.org/wiki/" तथा "http://wikisource.org/wiki/हिन्दी" वेबसाइटों पर समग्र हिन्दी ज्ञानकोश निःशुल्क रूप से सर्वसुलभ कराने का कार्य स्वयंसेवकों द्वारा जारी है। 10 सितम्बर 2006 तक विभिन्न ज्ञान-विज्ञान के विषयों पर 1716 संख्यक हिन्दी लेख विकिपीडिया में उपलब्ध थे। विकि की सबसे बड़ी विशेषता यह सबके लिए मुक्त है तथा कोई भी व्यक्ति इसमें कोई नया पाठ जोड़ सकता है तथा उपलब्ध पाठ को बिना किसी रोक-टोक के सुधार भी सकता है। इसलिए यह विकास के लिए उन्मुक्त है और निरन्तर इस ज्ञानकोश की सामग्री बढ़ती तथा सुधरती जा रही है।

इसी प्रकार विभिन्न भाषाओं की लिपियों के पाठों को दूसरी भाषा की लिपि में बदलने के लिए भी कुछ ऑन-लाइन प्रोग्राम उपलब्ध हो गए हैं। सिर्फ एक क्लिक करते ही देवनागरी से अन्य भारतीय भाषाओं में और इसके विलोमतः बदलनेवाला एक ऑनलाइन प्रोग्राम भी "http://www.devanaagarii.net/hi/girgit/" वेबसाइट पर श्री आलोक कुमार जी द्वारा उपलब्ध कराया गया है। हालांकि इसमें कुछ खामियाँ हैं, जिनके समाधान का प्रयास जारी है।

भारत के सूचना प्रोद्योगिकी मन्त्री माननीय मारन जी की पहल पर हिन्दी सॉफ्टवेयरों के संकलन की एक सीडी भी निःशुल्क जारी की जा चुकी है। ये www.ildc.in/hindi/Hindex.aspx पर भी उपलब्ध हैं, जो एक स्तुत्य प्रयास है। किन्तु इनमें अधिकांश ओपेन सोर्स नहीं हैं और इनमें कुछ त्रुटियाँ/भूल पाई गई हैं, जिनका अगले संस्करणों में सुधार किया जाएगा। इनमें लिखित हिन्दी पाठ को बोलकर सुनाने के लिए "वाचक" नामक सॉफ्यवेयर भी शामिल है। 'लिनक्स' एक मुफ्त और मुक्त-कूट कम्प्यूटर प्रचालन प्रणाली है, कोई भी प्रोग्रामर इसमें कुछ सुधार करके अपना योगदान कर सकता है। जिससे इसका विकास दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा है।

लिनक्स के विश्व की अनेक भाषाओं में रूपान्तरण हो चुके हैं। हिन्दी में भी सम्पूर्ण प्रदर्शन, मीनू, सहायता सहित विभिन्न निवेश सन्देश आदि उपलब्ध हो चुके हैं। http://www.indlinux.org/" वेबसाइट से इसके हिन्दी रूपान्तरणों को निःशुल्क डाउनलोड किया जा सकता है।

युनिकोड-मानक-कूटों के प्रचलन के बाद हिन्दी तथा देवनागरी लिपि का भूमण्डलीकरण हो गया है तथा अन्तर्राष्ट्रीय मञ्च पर भारत भी अपनी भाषायी भूमिका निभाने में काफी हद तक सफल हो रहा है।युनिकोड एक 16-बिट का मानक है जिसमें संसार की लिखित लिपियों के जिनमें कुल 65536 अक्षरों, मात्राओं, चिह्नों आदि का कूट-निर्धारण हो सकता है। इतने में संसार की लगभग सभी भाषाओं के मूल वर्ण आ जाते हैं। जबकि 8-बिट होने के कारण पुराने एस्की (ASCII) आधारित कोडपेज में अधिकतम 256 कूट ही निर्धारित हो पाते थे। इसलिए हिन्दी के अक्षर-कूट अंग्रेजी के अक्षरों के ऊपर पैबन्द की तरह चिपकाकर काम चलाना पड़ता था।

लेकिन इण्टरनेट के क्षेत्र में वर्तमान हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं में कुछ तकनीकी समस्याएँ अभी भी सामने मुँह बाए खड़ी हैं, जिनके समाधान के लिए विशेष ध्यान दिया जाना जरूरी है।

इनमें से कुछ प्रमुख हैं:

जटिल प्रक्रिया

हिन्दी की 'देवनागरी' लिपि के मूल अक्षरों (स्वर एवं व्यंजन) की कुल संख्या सिर्फ 49 है। आश्चर्य की बात है कि फिर भी हिन्दी (तथा भारतीय भाषाओं -Indic) को जटिल भाषाओं (Complex Languages) की श्रेणी में रखा गया है। जबकि जापानी-चीनी-कोरियाई (CJK) तीन विशाल राष्ट्रों की संयुक्त लिपि, जिसके 25000 से ज्यादा अक्षरों को युनिकोड में कूट-निर्धारित (encoded) किया गया है, को अपेक्षाकृत सरल लिपि कहा जाएगा।

इसका कारण है: मूल अक्षरों के बायें, दायें, ऊपर, नीचे लगनेवाली मात्राओं, संयुक्ताक्षरों, वर्ण का संरेखण-क्रम कभी बायें से दायें तथा कभी ऊपर से नीचे होने तथा कुछ अतार्किक और अवैज्ञानिक प्रयोग के कारण प्रचलित रूप में पाठ का प्रदर्शन (rendering) काफी जटिल होता है।

इसका प्रमुख कारण है कि युनिकोड मानक-कूटों में मूल अक्षरों और मात्राओं को ही स्थान दिया गया है। संयुक्ताक्षरों तथा बारह-खड़ी (मात्रायुक्त वर्ण) को प्रकट करने के लिए कम्प्यूटर के आन्तरिक संसाधन हेतु जटिल दोमुँही प्रक्रियाएँ अपनानी पड़ती हैं। कम्प्यूटर में देवनागरी डैटा का भण्डारण एवं संसाधन सिर्फ मूल कूटाक्षरों (Encoded characters) में होता है, जबकि परम्परागत रूप में संयुक्ताक्षरों आदि को प्रकट करने तथा मुद्रण के लिए ओपेन टाइप फोंट्स का उपयोग करना पड़ता है। देवनागरी लिपि के लिए ओपेन टाइप फोंट्स में अनेक जटिल नियमों का उपयोग करना पड़ता है, जिनमें प्रमुख हैं : वर्णखण्डों के पुनःस्थापन (glyph positioning) तथा वर्णखण्डों के विकल्पन (glyph substitution) की प्रक्रियाएँ।

अधिक लागत

16 बिट कूट होने के कारण युनिकोड कूटों के पाठ व डैटा को पुराने आपरेटिंग सीस्टम् वाले कम्प्यूटर कार्यान्वित नहीं कर पाते। विण्डोज एक्सपी के बाद तथा लिनक्स आदि में भी यूनीकोड पूरी तरह कार्यान्वित करने में कई तरह की समस्याएँ हैं। युनिकोड को सही रीति लागू करने के लिए कम्प्यूटर की क्षमता, स्पीड, मेमोरी, हार्डडिस्क, प्रोसेसर सभी का आधुनिकीकरण करना होगा, अर्थात लगभग पूरा कम्प्यूटर और आपरेटिंग सीस्टम बदलना होगा, जिसमें भारी लागत आती है।

महंगा होना

युनिकोड पाठ व डैटा एस्की डैटा की तुलना में दुगुना स्थान घेरता है। यूनीकोड को पुरानी 8 बिट कम्प्यूटर प्रणालियों के मध्य तालमेल आवश्यकता के मद्देनजर इसके 8-बिट प्रतिबिम्ब रूपक यूटीएफ-8 कूट निर्धारित किए गए हैं। लेकिन इसमें एक अक्षर एक बाईट से वजाए तीन से चार बाईट का स्थान घेरता है। जिससे पाठ का आकार तीन से चार गुना हो जाता है।

उदाहरण के लिए मोबाइल फोन पर अंग्रेजी में भेजे गए 150 अक्षरों तक के एक लघु सन्देश (SMS) की लागत (भारत संचार निगम की तत्कालीन दर अनुसार) एक रुपया होती है। किन्तु हिन्दी में 150 अक्षरों तक के एक लघु सन्देश की लागत 3 से 4 रुपये तक आएगी। एक हिन्दी लघु सन्देश 3 या 4 सन्देशों में विभाजित होकर प्रेषिती के मोबाइल में पहुँचता है। क्योंकि हिन्दी सन्देश यूटीएफ-8 (UTF8) कूटों में बदलकर सम्प्रेषित होते हैं और हिन्दी का एक अक्षर (syllable) एकाधिक वर्णों (Alphabet) से मिलकर बना होता है। इस प्रकार हिन्दी का प्रयोग उपयोगकर्ता का काफी महंगा पड़ता है। अतः लोग रोमन लिपि में सन्देश भेजने को प्राथमिकता देते हैं। आज के भागम् दौड़ के युग में लोग कम से कम अक्षरों में अपने भाव व्यक्त करते हैं। जैसे : How are you? के बदले
"How r u" लिखा जाने लगा है।

हिन्दी ई-मेल सन्देशों का पाठ विकृत हो जाना:

युनिकोड कूटों में सम्प्रेषित हिन्दी ई-मेल सन्देश अक्सर अन्य कूटों में विकृत होकर मिलते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी ने एक सन्देश में तीन अक्षर (कखग) 16 बिट शुद्ध युनिकोड में लिखकर भेजे हैं। तो वह प्रेषिती के पास कभी यूटीएफ-8-कूट में बदलकर यों ( कखग) प्रकट होता है। तो कभी वेब प्रोग्रामिंग भाषा एचटीएमएल के दशमलव कूटों में बदलकर (जैसे "कखग" के बदले "कखग") प्रकट होता है तो कभी प्रश्नवाचक चिह्न बनकर (???) प्रकट होता है, तो कभी अन्य कूटों में बदल कर हिन्दी सन्देश कूड़ा-करकट जैसे प्रकट होते हैं। जिससे भारी समस्या पैदा होती है। सन्देश प्राप्तकर्ता परेशान होकर रोमन लिपि में हिन्दी सन्देश भेजने को मजबूर होते हैं। इसका कारण है विभिन्न वेब-पोर्टाल एवं ई-मेल सेवा प्रदाताओं ने अभी तक युनिकोड/यूटीएफ8 को डिफॉल्ट रूप में पूर्व-निर्धारित करने के लिए उपयोक्ता को कोई विकल्प प्रदान नहीं किया है। लेकिन प्रसिद्ध इण्टरनेट सर्च इंजन गूगल द्वारा प्रदान की जा रही "gmail.com" द्वारा उपयोक्ताओं को डिफॉल्ट रूप में सन्देश यूटीएफ-8 रूप में भेजने का विकल्प प्रदान किया है। जिससे जीमेल से भेजी गई हिन्दी ई-मेल सही रूप में प्रकट होती है। सभी ई-मेल सेवा-प्रदाताओं को ऐसे विकल्प प्रदान करना चाहिए, लेकिन इसमें और कुछ वर्षों का समय लग सकता है।

मुक्त कूट या मुफ्त न होना :

विभिन्न कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर विशेषकर माइक्रोसॉफ्ट विण्डोज के प्रोग्रामों के सोर्स कोड उपयोगकर्ताओं के लिए उन्मुक्त नहीं हैं। उपयोगकर्ता उनकी विशेषताओं में अपने अनुकूल कोई परिवर्तन या सुधार नहीं कर सकता। जिससे विकास सीमित रह जाता है। साथ ही सॉफ्टवेयर महंगे होने के कारण लोग इनकी अनुज्ञप्ति प्राप्त प्रति खरीद नहीं पाते हैं और उन्हें कोई अद्यतन करने की सेवा नहीं मिल पाती है। माईक्रोसॉफ्ट विण्डोज प्रचालन प्रणाली में युनिकोड को कार्यान्वित करनेवाला प्रोग्राम युनिकोड स्क्रिप्ट प्रोसेसर (USP.DLL) मुक्त कूट नहीं है, जिससे अन्य व्यक्ति इसमें ्अपने अनुकूल कोई सुधार नहीं कर पाते।

इसके विपरीत लिनक्स आपरेटिंग सीस्टम् का मुख्य अंश मुक्त कूट है जिसमें इसके सोर्स कोड भी सर्वसुलभ हैं। कोई भी प्रोग्रामर इसमें सुधार कर अपना योगदान कर सकता है। लेकिन इसका कोई मानक उपलब्ध नहीं होने के कारण इसके अनेक रूप उपलब्ध हैं, जिससे यह अभी इतना लोकप्रिय नहीं हुआ है।

डैटाबेस में वर्णक्रमानुसार छँटाई (sorting) तथा सूचकांकन (indexing) की समस्याएँ :

युनिकोड आधारित डैटाबेस प्रबन्धन और प्रोग्रामिंग में देवनागरी आँकड़ों/पाठ को वर्णक्रमानुसार छँाटने या इण्डेक्स बनाने पर डिफॉल्ट रूप में जो प्रतिफल मिलता है, वह भाषिकी प्रयोग की दृष्टि से सही नहीं हो पाता। इसका मुख्य कारण है-
शुद्ध व्यंजनों के मानक-कूट निर्धारित न होना

देवनागरी युनिकोड में शुद्ध व्यंजनों के लिए कोई कूट-निर्धारण नहीं किया गया है। बल्कि 'अ'कार-युक्त व्यंजन अक्षरों को ही शामिल किया गया है। जिससे देवनागरी जैसी सरल सपाट और ध्वनिविज्ञान की कसौटी पर सर्वोत्तम सक्षम लिपि को भी चीनी, जापानी, कोरियाई (CJK), अरबी, फारसी जैसे क्लिष्ट लिपियों (complex scripts) के वर्ग में दर्ज होना पड़ा है। इसके कारण हलन्त का उलटा प्रयोग करके शुद्ध व्यंजन प्रकट किए जाते हैं, जो तर्कसंगत नहीं होता। देवनागरी पाठ की इण्डेक्सिंग करने में काफी समस्याएँ सामने आती हैं। यह प्राकृतिक भाषा संसाधन (NLP) तथा बोली से पाठ (Speech to text) जैसे उन्नत कम्प्यूटर प्रयोगों के लिए भी जटिल समस्या बन गया है।

महंगा सदस्यता शुल्क

युनिकोड.ओर्ग (http://www.unicode.org/) का सदस्यता शुल्क भी काफी महंगा है (व्यक्तिगत सदस्य के लिए 300 डॉलर प्रतिवर्ष) और बिना सदस्य बने आपको कोई सुझाव या विकास या सुधार प्रस्ताव देने का कोई अधिकार नहीं मिलता। सिर्फ आप चर्चाओं में भाग ले सकते हैं, परन्तु वह वैध तौर पर स्वीकार या रिकार्ड नहीं किया जाता।

मुद्रण अनुकूल सुन्दर ओपेन टाइप फोंट्स का अभाव

हिन्दी युनिकोड के पाठ को पारम्परिक रूप में मात्राओं और संयुक्ताक्षरों में प्रकट करना ओपेन टाइप फोंट्स द्वारा ही हो पाता है। अभी तक भारतीय भाषाओं के लिए छपाई योग्य सुन्दर ओपेनटाइप फोंट्स पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाए हैं। इसके कारण छपाई आदि
में पुराने ट्रू-टाइप 8-बिट वाले फोंट्स का ही सहारा लेना पड़ता है।मुद्रण-सज्जा सॉफ्टवेयर युनिकोड अनुकूल नहीं एडोबे पेजमेकर, फ्रेममेकर, फोटोशॉप, क्वार्क एक्सप्रेस, फ्रीहैण्ड, फ्लैश, कोरल ड्रा, आदि मुद्रण पूर्व पृष्ठसज्जा या डिजाइनिंग करनेवाले सॉफ्टवेयर अभी भी युनिकोड आधारित ओपेन टाइप देवनागरी फोंट्स की तकनीकी के अनुकूल नहीं हैं। इनमें युनिकोडित पाठ का हर अक्षर सिर्फ प्रश्नवाचक चिह्न (?) के रूप में प्रकट होता है। इसलिए छपाई के लिए युनिकोडित पाठ को फिर से 8-बिट वाले पुराने ट्रू-टाइप फोंट्स में परिवर्तित पड़ता है।

फोंट-कूट-परिवर्तक की त्रुटियाँ

भारत सरकार द्वारा अभीतक 8 बिट वाले पुराने देवनागरी फोंट्-कूटों का भी मानकीकरण नहीं हो पाया है। कुछ फोंट परिवर्तक सॉफ्टवेयर जरूर उपलब्ध कराए गए हैं, लेकिन वे मुक्त-स्रोत नहीं हैं और इनके द्वारा परिवर्तित पाठ में अनेक भूलें रह जाती हैं, जिससे दुबारा प्रूफ रीडिंग करनी पड़ती है। मानव श्रम घण्टों की बाबत करोड़ों रुपये की वार्षिक राष्ट्रीय हानि होती है। अतः जरूरी है कि ऐसा ओपेन सोर्स प्रोग्राम मुफ्त उपलब्ध कराया जाए, जो सिर्फ एक माउस-क्लिक मात्र करने पर विभिन्न फोंट्स आदि में संसाधित चुने गए (selected) पाठ को युनिकोड में तथा युनिकोड से आवश्यक पुराने 8 बिट फोंट में बिना किसी भूल के
बदल दे।

कम्प्यूटर पाठ्यक्रमों में 'हिन्दी' शामिल नहीं

भारत सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग में अग्रणी स्थान पर है। प्रतिवर्ष देश को आई.टी. के खाते में अरबों रुपये का राजस्व प्राप्त होता है। किन्तु भारत के किसी भी कम्प्यूटर पाठ्यक्रम में आज तक सूचना विनिमय के लिए भारतीय मानक (ISCII) और अन्तर्राष्ट्रीय स्तरीय लिपि मानक (UNICODE) को भी एक विषय तक के रूप में शामिल नहीं किया गया है। हिन्दी में कम्प्यूटिंग तो दूर की बात है। जिसके कारण नए कम्प्यूटर आपरेटरों, प्रोग्रामरों, इंजीनियरों को सिर्फ US-English में ही प्रोग्रामिंग करना या डैटा प्रविष्ट करना आता है।

हाल ही में सेंट्रल ब्यूरो ऑफ सेकेण्डरी एजुकेशन (CBSE) के नए पाठ्यक्रम में ISCII और Unicode मानकों को एक विषय के रूप में शामिल किया गया है, जो एक स्तुत्य प्रयास है।

लेकिन भारत सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के इलेक्ट्रॉनिकस् विभाग द्वारा प्रत्यायित कम्प्यूटर पाठ्यक्रमों (DOEACC) के 'ए', 'बी', 'सी' लेवल आदि किसी भी पाठ्यक्रम में न तो इस्की या युनिकोड का कोई विषय शामिल है, न ही हिन्दी में कम्प्यूटर में काम करने की जानकारी तक देने का कोई अध्याय। जबकि जनता द्वारा मांग की जाती रही है कि शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो। सभी कम्प्यूटर प्रशिक्षण भी हिन्दी भाषा के माध्यम से भी प्रदान करने का विकल्प उपलब्ध होना चाहिए।

भारत सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा केवल केन्द्रीय सरकारी कर्मचारियों को कम्प्यूटर पर हिन्दी में काम करने के संक्षिप्त पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं, परन्तु आम जनता के लिए नहीं।

उपर्युक्त समस्याओं के समाधान हेतु प्रयास किए जा रहे हैं और इण्टरनेट के क्षेत्र में हिन्दी की व्यापक सम्भावनाएँ हैं और उज्ज्वल भविष्य नजर आ रहा है।

क्या कम्प्यूटर क्रान्ति लायेगी हिन्दी क्रान्ति?

विश्व में विकसित राष्ट्रों में इक्कीसवीं शताब्दी की ओर दौड़ की स्पर्धा में दिन दूनी रात चौगुनी हो रही कम्प्यूटर क्रान्ति और हिन्दी भाषा की वैज्ञानिक विशेषताओं को देखते हुए यह आशा करना केवल 'हवाई किले' बनाना न होगा कि निकट भविष्य में विश्व के बुद्धिजीवियों में हिन्दी सीखने की होड़ लग जायेगी। और फिर भाषा विज्ञान के विद्वानों का यह कथन सार्थक हो सकेगा कि "अपने गुणों के कारण ही हिन्दी विश्वभाषा बनने की क्षमता रखती है।"

कम्प्यूटरों का प्रयोग अब जन-जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है -- बालकों की शिक्षा से लेकर औद्योगिक/व्यावसायिक संस्थानों का संपूर्ण लेखा-जोखा रखने, प्रकाशन उद्योग को बिजली की गति देने, बड़े-बड़े विशाल कल-कारखानों का सञ्चालन करने, विश्वस्तरीय सञ्चार एवं सूचना प्रणाली, मौसम सम्बन्धी भविष्यवाणी करने, ज्योतिष सम्बन्धी भूत-भविष्य के हर प्रश्‍न का उत्तर देने से लेकर अन्तरिक्ष यानों व उपग्रहों के सुदूर सञ्चालन तक।

अब बाजार में नई पीढ़ी के बहु-माध्यमी (Multi-media) कम्प्यूटर भी आ गए हैं, जिनमें आँकड़ों के संसाधन के साथ-साथ ध्वनि, चलचित्र-ग्राफिक और सञ्चार सुविधाएँ भी शामिल हैं। कम्प्यूटर की सी॰डी॰रोम में आँकड़ों के अलावा संगीत एवं चित्र-प्रतिबिम्ब भी आँकिक (Digital) रूप में भण्डारित किए जा सकते हैं और आवश्यकतानुसार सुधार एवं बारम्बार प्रयोग किया जा सकता है। कम्प्यूटर ग्राफिक सिर्फ हालीवुड की फिल्मों तक ही सीमित नहीं हैं, भारतीय फिल्म 'मि॰ इण्डिया' और अनेक टी॰वी॰ विज्ञापनों में भी इसका कमाल देखा जा चुका है। अब शैक्षणिक एवं चिकित्सा क्षेत्र में भी कम्प्यूटर ग्राफिक का इस्तेमाल किया जाने लगा है। कम्प्यूटर सहयोजित डिजाइन एवं निर्माण सॉफ्टवेयर प्रोग्रामों (CAD-CAM) के द्वारा विभिन्न नक्शे, इञ्जीनियरिंग व टेक्सटाइल डिजाइन, आदि बनाने एवं उनमें रङ्ग भरने के काम भी आसानी से सम्पन्न होते हैं। अब तो आभासी वास्तविकता (वर्चुअल रीयलिटी Virtual Reality) के कमाल भी विभिन्न प्रयोगों में किए जा रहे हैं।

वर्तमान प्रचालित कम्प्यूटर सामान्यतः कुञ्जीपटल (Key-Board) की कुञ्जियों एवं 'माउस' (Mouse) या 'ज्वाय-स्टिक' (Joy stick) द्वारा सञ्चालित होते हैं। विभिन्न आँकड़ों को की-बोर्ड पर टङ्कित करके कम्प्यूटर को "फीड" करना पड़ता है। कम्प्यूटर की स्क्रीन पर प्रदर्शित सामग्री को पढ़कर आवश्यक सुधार करके अन्त में प्रिण्ट निकालकर दस्तावेज प्रस्तुत किए जाते हैं। मेग्नेटिक डिस्क में साफ्टवेयर प्रोग्राम सुरक्षित रखे जाते हैं। कम्प्यूटर की भाषा सांकेतिक इलेक्ट्रॉनिक विद्युत-तरंग पर आधारित होती है, इसका समस्त आधार सिर्फ दो संकेत -- 'हाँ' और 'नहीं' या ऋणात्मक और धनात्मक आवेश या 0 और 1 -- होते हैं। इन संकेतों की मशीनी भाषा को नियंत्रित करने के लिए बेसिक, कोबोल, सी, पास्कल आदि इण्टरप्रेटर या कम्प्यूटर लैंगवेज प्रोग्राम विकसित किए गए हैं। कम्प्यूटर के सुचारू एवं तीव्र प्रचालन हेतु इन कम्प्यूटर भाषाओं का ज्ञान तथा टाइपिंग सीखना आवश्यक है।

लेकिन मानव को और अधिक आराम व सुविधाएँ प्रदान करने की विज्ञान की होड़ में आज इलेक्ट्रॉनिक वैज्ञानिक नई पीढ़ी के ऐसे ध्वन्यात्मक (PHONETIC) कम्प्यूटरों के अनुसन्धान में लगे हैं जिनमें "की-बोर्ड" पर टाइप करने की आवश्यकता ही न रहे। कम्प्यूटर भाषा प्रोग्रामिंग एवं टाइपिंग सीखने या टाइपिस्ट या आपरेटर रखने के झमेले से मुक्ति मिल जाए। सिर्फ बोलकर कम्प्यूटर को आदेश दिया जा सके या सामग्री फीड की जा सके और वह कम्प्यूटर अपनी स्क्रीन पर सभी सङ्गणित आँकड़े, लेख, चित्र आदि में उत्तर प्रदर्शित करने के साथ-साथ बोलकर उत्तर भी दे सके और मुद्रित दस्तावेज भी प्रस्तुत कर दे।

कल्पना की जा सकती है कि तब अधिकारियों को अपने स्टेनो या निजी सहायक रखने की जरूरत न होगी। यह सभी कार्य कम्प्यूटर कर देगा। अधिकारी कम्प्यूटर को डिक्टेशन देंगे और कम्प्यूटर दस्तावेज मुद्रित कर प्रस्तुत करेगा। अपनी मेमोरी में फाइलिंग कर सुरक्षित भी रखेगा, आँकड़ों का सङ्गणन व विश्लेषण करके आवाज में बोलकर तथा स्क्रीन पर प्रदर्शित करके भी उत्तर देगा।

परन्तु वैज्ञानिकों के समक्ष ऐसे चमत्कारी कम्प्यूटर के निर्माण में मुख्यतः भाषाओं के ध्वनिचिह्नों (लिपि के अक्षरों) और शब्दों में उच्चारणगत अन्तर बाधा बनकर आता है। ध्वनिविज्ञान की कसौटी पर परिशुद्ध एक ऐसी भाषा को अपनाने से ही उनका लक्ष्य सिद्ध हो सकता है जिसके ध्वनिचिह्नों और शब्द-विन्यास में पूर्णरूपेण एकरूपता हो या कोई अन्तर न हो।

संसार भर की अन्यान्य भाषाओं में दुर्लभ यह वैज्ञानिक विशेषता हिन्दी और संस्कृत भाषा का मौलिक गुण है। 14 सितम्बर, 1989 के दैनिक जनसत्ता में प्रकाशित लेख की कुछ पंक्तियाँ इस सन्दर्भ में उल्लेखयाग्य है -- "पाणिनी के सूत्रों को पढ़कर आधुनिक वैज्ञानिक संस्कृत की गणितीय विशेषता को पहचानते हुए चकित रह गए हैं। आज के औद्योगिक युग में व्यवहार के लिए दुनिया के कई हिस्सों में संस्कृत के आधार पर एक कम्प्यूटर भाषा विकसित करने के लिए काफी खोजबीन चल रही है और उसमें पर्याप्त सफलता भी मिली है।" अमेरिका के "नासा" सैन्य अनुसन्धान केन्द्र और कम्प्यूटर तकनीकी के विशेषज्ञों ने कम्प्यूटर पर मानवीय भाषा के बीस वर्षों के लम्बे अनुसन्धान के बाद दावा किया है कि कम्प्यूटर की यान्त्रिक जरूरतों को पूरा करने के लिए विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में संस्कृत सबसे उपयुक्त है। 'स्कूल आफ कम्प्यूटर एण्ड सिस्टम साइन्स' के एसोसियेट प्रोफेसर (जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यलय) डॉ॰ गुरुबचन सिंह, जो कम्प्यूटर पर संस्कृत सम्बन्धी परियोजना पर कार्यरत है, के अनुसार "संस्कृत के वाक्यों की संरचना आधुनिक ज्ञान के निरूपण और निष्कर्ष निकालने के विधि, जैसे सिमेण्टिक नेट्स, फ्रेम्स, कन्सेप्चुअल डिपेण्डेन्सी सिद्धान्त, कन्सेप्चुअल ग्राफ आदि से बहुत मिलती है, जो मशीन की डिजाइनिंग में प्रयुक्त की जा सके।"

लेकिन कठिन व्याकरणयुक्त संस्कृत सामान्य-जन को काफी कठिन लगती है। हिन्दी भाषा सरल होने के साथ-साथ वैज्ञानिकता पूर्ण भी है। शायद इसीलिए भूतपूर्व केन्द्रीय सूचना व प्रसारण मंत्री श्री हरिकिशन लाल भगत ने एक सम्मेलन में कहा था -- "भविष्य के कम्प्यूटरों के लिए हिन्दी ही सर्वाधिक उपयुक्त भाषा होगी।"

विश्व की अन्यान्य भाषाओं में ऐसी ध्वन्यात्मक समन्वयता का अभाव पाया जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय मञ्च पर शिष्ट वर्ग की भाषा अंग्रेजी में अक्षरों का अपना स्वतन्त्र उच्चारण कुछ और है तो अक्षरों से मिलकर बने शब्दों का बिल्कुल भिन्न है। जैसे--


"GO'' का आक्षरिक उच्चारण "जी ओ" है तो इससे मिलकर बने शब्द का उच्चारण "गो" होता है।
"SO'' का आक्षरिक उच्चारण "एस ओ" है तो शाब्दिक "सो" होता है।
और फिर उच्चारण का कोई एक समान नियम भी लागू नहीं है।
"TO'' का आक्षरिक उच्चारण "टी ओ" है तो शाब्दिक " टु",
"DO'' का आक्षरिक उच्चारण "डी ओ" है तो शाब्दिक "डु" होता है।
यदि कोई एक समान नियम मानकर पहले दो शब्दों का अनुकरण करे तो "TO'' एवं "DO'' का शाब्दिक उच्चारण भी क्रमश: "टो" एवं "डो" होना चाहिए न।
अक्षरों का अलग-अलग शब्दों में उच्चारण अलग-अलग होता जाता है, जैसे - 'G' (जी) का 'page' (पेज) में "ज" और "pag'' (पैग) में "ग" होता है।
इसी कारण अंग्रजी के अधिकांश शब्दों का उच्चारण (prounciation of same spelling) अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग प्रकार से करते पाये जाते हैं तो एक ही शब्द की वर्तनी (spelling) भिन्न-भिन्न प्रकार से लिखी जाती है। इसके लिए हिन्दी के एक ही शब्द 'चौधरी' को उदाहरणार्थ देखें :---

1.चौधरी
1.Chaudhary 2.Chaudhari 3.Chaudharie
4.Chawdhry 5.Chaudhri 6.Chaudhry
7.Chaudhri 8.Chawdhary 9.Chawdhury
10.Chodhri 11.Choadhri 12.Chaodhry
13.Choudhhari 14.Choudhary 15.Choudhri
16.Choudhry 17.Choudhri 18.Choudhree
19.Chowdary 20.Choudhury 21.Chowdhary
22.Choudharii 23.Chawdharii 24.Chaudharii


संसार की अन्यान्य भाषाओं - फ्रेञ्च, जर्मन, लेटिन, हिब्रू, चीनी, अरबी, फारसी आदि में भी ऐसी ही कुछ न कुछ अस्पष्टता देखी जाती है। कुछ भारतीय भाषाओं में भी उच्चारणगत स्वर-भेद दिखाई देते है। उदाहरणार्थ ओड़िआ व बंगला भाषा में लिखा गया शब्द "कटक" बोलते वक्त "अ"- कार में कुछ "ओ"-कार का लहजा मिल जाने से "कोटोको" जैसा उच्चारित होता है। बंगला में 'व' अक्षर का अभाव होने से 'व' के संयुक्ताक्षरों में से 'व' ध्वनि गायब हो जाती है तथा 'व' वर्ण के पूर्ण प्रयोग के स्थान पर 'ब' का प्रयोग करना पड़ता है। कुछ दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी ऐसी समस्याएँ दृष्टगोचर होती है। निस्सन्देह कम्प्यूटर की ध्वनि- तकनीक पर ऐसी जटिल और बेसिरपैर की समस्या का स्वत: समाधान हो जाना कितना कठिन है।
इसके विपरीत हिन्दी भाषा में जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है। ध्वनि-सङ्केतों के वैज्ञानिक क्रम, उच्चारणानुकूल लिखावट, सुपाठ्य लिपि, ह्रस्व व दीर्घ स्वरों, सघोष व अघोष, अल्पप्राण व महाप्राण व्यञ्जन ध्वनियों के लिए अलग-अलग चिह्नों की मौलिक विशेषता के साथ इसमें दक्षिण भारतीय अतरिक्त स्वरों, अर्द्ध-संवृत्त, विवृत आदि विदेशी स्वरों व अरबी-फारसी की ध्वनियों को शामिल किए जाने के कारण संसार की किसी भी भाषा यो बोली के शब्दों को हिन्दी में हूबहू उच्चारित और लिपिबद्ध किया जा सकता है। जबकि हिन्दी एवं संस्कृत भाषा के शब्दों को अंग्रेजी में बोलना व रोमन लिपि में हूबहू लिखना लगभग असम्भव है।

विश्व-भाषाओं में हिन्दी को सर्वोत्तम वैज्ञानिक ध्वनिपरक भाषा स्वीकार किए जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हिन्दी एक लचीली भाषा है। इसे किसी भी भाषायी संरचना में ढालकर उसी के अनुरूप बनाया जा सकता है। सर विलियम जोन्स का यह कथन इसके कितना अनुकूल है -- "नागरी लिपि की वैज्ञानिकता पर संसार के विद्वान मुग्ध रहे हैं।"
ध्वन्यात्मक कम्प्यूटरों की श्रृंखला में प्रोसेस कण्ट्रोल या एनालोग कम्प्यूटर तो बन चुके हैं जो यन्त्रमानव "रोबोट" की तरह अनेक कार्य करते हैं। उनकी स्मृति में रिकार्ड की गई शब्दावली के आधार पर प्रश्‍नों के निर्धारित उत्तर बोलकर भी देते हैं। ध्वनि-नियम पर आधारित "खुल जा सम सम" के अंदाज में "कोड-वर्ड" प्रचालित अनेक यन्त्र बन चुके हैं। इनकी परिकल्पना दूरदर्शन विज्ञान धारावाहिक "स्पेस सिटी सिग्मा" में स्वचालित दरवाजों, कम्प्यूटर कलाई घड़ी और "ब्रेन बैंक" के रूप में देखी जा चुकी है।

वैसे तो वर्ड-प्रोसेसर पर लिप्यन्तरण (TRANSLITERATION), ओडियोग्राफिक प्रिण्टिङ्ग तथा कम्प्यूटर अनुवादक यन्त्र भी व्यवहार में आ चुके हैं, परन्तु उनकी क्षमता उनके स्मृतिकोश में भण्डारित शब्दकोशों तक ही सीमित है। किन्तु स्टेनों की तरह डिक्टेशन लेकर या किसी भी आवाज को ग्रहण कर, हरेक ध्वनि को स्वचालित रूप से विश्लेषित करके सम्पूर्ण सङ्गणना कार्य करके, बोलकर उत्तर देने, स्क्रीन पर प्रदर्शित करने और प्रिण्टर पर मुद्रित दस्तावेज प्रस्तुत कर सकने वाले कम्प्यूटरों के कार्य सम्पादन हेतु ध्वनिविज्ञान के सिद्धान्तों की कसौटी पर सुगठित हिन्दी व संस्कृत भाषाएँ ही सर्वाधिक उपयुक्त होगी।

तकनीकी संरचना : ऐसे ध्वन्यात्मक (PHONETIC) कम्प्यूटरों की तकनीकी संरचना में इनपुट की-बोर्ड के अलावा एक ध्वनि बोर्ड (add on speech Board) होगा जिसमें उत्कृष्टतम एकमुखी (एक ही दिशा से आई ध्वनि को ग्रहण करनेवाला) माइक्रोफोन रिसीवर लगा होगा जो ध्वनि-सङ्केतों को मुख्यतः चार अङ्गों में विश्लेषित करेगा--
(1) ध्वनि-तरंगों की आवृत्ति (FREQUENCY),
(2) प्रबलता (VOLUME),
(3) स्वरमान तारत्व (PITCH), और
(4) व्यक्तिगत लहजे या स्वराघात (TONE) --
और वर्गीकरण करके इलेक्ट्रॉनिक सूक्ष्म-ध्वनि-सङ्केतों में बदलकर हार्ड डिस्क या रैम या रोम में भण्डारण करेगा। बाइनेरी मशीनी सङ्केत-लिपि में केन्द्रीय सूक्ष्म-संसाधक में सभी गाणितीय, आभियान्त्रिक या वैज्ञानिक सङ्गणनाओं के बाद समस्त जानकारियाँ अपने स्मृतिकोश में भण्डारित करेगा। आऊटपुट उत्तर इसमें लगे विशेष "स्पीकर" द्वारा आवाज में बोलकर सुनाने के साथ-साथ स्क्रीन पर प्रदर्शित करेगा और आवश्यकता के अनुरूप प्रिण्टर पर मुद्रित दस्तावेज भी प्रस्तुत करेगा।

आजकल कम्प्यूटर बाजार में हो रहे "कम्प्यूटर-वायरस" के प्रकोपों, साफ्टवेयर प्रोग्रामों की नकल की भयानक समस्याओं से ऐसे ध्वन्यात्मक कम्प्यूटर अधिक सुरक्षित रह सकेंगे क्योंकि विश्व में किन्हीं दो व्यक्तियों की आवाज बिल्कुल एक जैसी नहीं होती। सही मालिक की आवाज के अनुसार प्रोग्रामिंग किए जाने पर यह कम्प्यूटर अन्य किसी का आदेश नहीं मानेगा।

लेकिन इस लक्ष्य तक पहुँचने में अभी अनेक तकनीकी, ध्वनिवैज्ञानिक व भाषागत बाधायें पार करनी होगी। हिन्दी भाषा को सर्वोपयोगी बनाने हेतु लिङ्ग-वचन सम्बन्धी क्रिया-पदों के सरलीकरण आदि विषयों पर शोध किया जाना है।

ऐसे कम्प्यूटर के प्रचलन से हिन्दी को विश्व में उल्लेखनीय महत्ता मिलेगी और हिन्दी भाषा की सरलता के कारण संसार के लोग इसे आसानी से सीख सकेंगे। आचार्य क्षितिमोहन सेन का कथन है कि "हिन्दी विश्व की सरलतम भाषाओं में से है।" आचार्य बिनोवा भावे का कथन भी कितना सार्थक है कि "केवल अंग्रेजी सीखने में जितना श्रम करना पड़ता है, उतने में हिन्दुस्तान की सभी भाषायें सीखी जा सकती है।"

अब हमें अपनी हीनभावना को त्यागकर, हिन्दी की महानता को पहचानकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करना चाहिए। सभी हिन्दी को "विश्वभाषा" पद एवं भारत को फिर से विश्वगुरू का मान दिलाने हेतु एकजुट हो जायें तो हमारे मनीषियों का स्वप्न साकार करना और सरल हो जाये।

आधुनिक युग का समस्त तकनीकी और वैज्ञानिक ज्ञान कम्प्यूटर पर निर्भर हो गया है, अतः ऐसे कम्प्यूटर के आविर्भाव से समस्त तकनीकी और वैज्ञानिक कार्यों में हिन्दी का प्रयोग स्वतः ही होने लगेगा।

गर्व की बात है कि हिन्दी विरोधी के रूप में प्रसिद्ध मद्रास के आई॰आई॰टी॰ में सर्वप्रथम "बोलकर कम्प्यूटरों में संदेशों के आदन-प्रदान की प्रणाली तथा भारतीय भाषाओं में सीस्टम हार्डवेयर के विकास" का कार्य चल रहा है। 'सी-डैक', पूना द्वारा भी शोध-कार्य जारी है। मुक्त स्रोत प्रचालन प्रणाली Linux के अन्तर्गत हाल ही में यूनीकोड हिन्दी पाठ को बोलकर सुनाने (text to speech) सॉफ्टवेयर का भी सफलता के साथ जारी किया गया है। (देखें : http://espeak.sourceforge.net)। भारत के राष्ट्रपति जी के प्रोत्साहन के अनुसार हमारे वैज्ञानिक एवं हिन्दी के विद्वान मिलकर लगनपूर्वक जुट जायें तो मञ्जिल कोई अधिक दूर नहीं लगती।
(मूल लेख 'अक्षर-1993' में प्रकाशित)

श्रम विद्युत की बैटरी

"काश! भोजन अपने आप पक जाता। काश! कपड़े अपने आप धुल जाते। काश! हमें कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता। कितना अच्छा होता यदि सोचते ही कल्पवृक्ष के नीचे बैठे व्यक्ति की तरह हमारी सारी मनोकामनाएँ अपने आप पूरी हों जाती। आराम ही आराम होता हमारे जीवन में।"

आज संसार के सभी लोग यही चाहते हैं कि कम से कम परिश्रम करना पड़े और अधिक से अधिक आराम मिले। कम से कम परिश्रम करके ही सारे काम संपन्न हो जायें। बिना श्रम किए ही स्वतः फल मिल सके।

संसार के वैज्ञानिक दिनोंदिन मानव को अधिकाधिक सुख-सुविधा प्रदान करने के लिए नए नए आविष्कारों की तलाश में लगे हुए हैं। प्राचीन काल में दूर प्रांत के व्यक्ति के पास सन्देश किसी अन्य व्यक्ति को भेजकर ही पहुँचाया जा सकता था। आज चलते-फिरते-घूमते सेल्यूलर फोन के माध्यम से हम संसार भर में बातचीत कर सकते हैं। दूरदर्शन चैनलों में संसार के दृश्य घर बैठे देखते हैं। उपग्रहों और अंतरिक्ष यानों में बैठ ब्रह्मांड की सैर कर सकते हैं।

लेकिन व्यक्ति को जितनी अधिक सुख-सुविधाएँ और आराम मिलता जा रहा है, उसका मानसिक तनाव, अशान्ति और दुःख भी बढ़ता ही जा रहा है। शरीर में अनेकानेक नए-नए रोग घर करते जा रहे हैं। क्या कारण है इसका? सुख दुःख में क्यों बदलता जा रहा है?

कहावत है -- "अति सर्वत्र वर्जयेत।" अत्यधिक सुख-सुविधा भी व्यक्ति को आलसी बना देती है। उसकी कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ शिथिल पड़ती जाती हैं। जैसे कि प्रसाधित भोजन या फास्ट फूड अधिक खाने वाले शहरी व्यक्तियों के दाँत ही नहीं पाचन तंत्र भी कमजोर पड़ जाता है।

अर्थशास्त्र में उत्पादन या व्यवसाय के लिए पाँच प्रमुख तत्व बताये गए हैं -- भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन और उद्यम। इन सभी में श्रम तत्व सर्वोपरि महत्व का है, जिसके बिना कोई भी कार्य संभव नहीं हो पाता। यहाँ हमें श्रम का व्यापक अर्थ लेना होगा। अर्थात् श्रम में केवल मजदूर ही नहीं, बल्कि मालिक या प्रबंधकों का परिश्रम भी शामिल है। चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो या बौद्धिक। अगर कहीं किसी रूप में श्रम ही नहीं होगा तो कोई भी उत्पादन या विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

समस्त साधनों में श्रम एक ऐसा तत्व है जो सर्वाधिक क्षणभंगुर प्रकार का होता है। जिस प्रकार किसी विद्युत उत्पादन केन्द्र से उत्पादित विद्युत का उपयोग नहीं किया जाए, तो वह ऊर्जा बेकार नष्ट हो जाती है। यह ऊर्जा जमा करके नहीं रखी जा सकती। उसी प्रकार शरीर में चयापचय से सृजित ऊर्जा शक्ति का उपयोग नहीं किया जाए तो वह नष्ट हो जाएगी। उसे जमा करके नहीं रखा जा सकता। क्या ऐसी कोई बैटरी नहीं बनाई जा सकती, जो किसी 1000 मेगावाट के विद्युत संयंत्र से उत्पादित होनेवाली विद्युत शक्ति को कुछ वर्षों तक भंडारित करके रख सके? और जब संयंत्र बन्द हो तो उसका उपयोग किया जा सके।

अत्यन्त सीमित क्षेत्र में ही ऊर्जा को बैटरी में भंडारित किया जा सकता है। 3 वोल्ट से लेकर 12 वोल्ट तक की ही फिर से चार्ज की जा सकने वाली बैटरियाँ फिलहाल बाजार में उपलब्ध होती हैं, जो विद्युत शक्ति से चार्ज होती हैं। उसी प्रकार हमारे शरीर में भोजन के पाचन से बना रस अनन्तः शरीर में चर्बी के रूप में भंडारित होता है। जो कुछ सीमित समय तक ही भूखे रहने पर हमें ऊर्जा प्रदान कर सकता है।

यदि हम दिन भर कोई भी काम या परिश्रम न करें, तो क्या भूख नहीं लगेगी? भूख तो लगेगी ही। दिन भर आराम फरमाने पर, आलस्य से पड़े रहने पर भी भूख-प्यास तो लगेगी ही। चाहे हमारे हाथ-पैर, दिमाग काम करें या न करें, पर पेट तो निरन्तर अपना काम करते रहता है। भोजन को पचाकर शरीर को जीवित रहने के लिए ऊर्जा प्रदान करने का काम निरन्तर करते रहता है। और पेट खाली होते ही फिर भूख लग जाती है। अतः जिस प्रकार जीवित रहने के लिए भोजन अत्यन्त आवश्यक है, उसी प्रकार जीवित रहने के लिए अपने अंगों से काम लेना भी उतना ही आवश्यक समझना चाहिए। नहीं तो शरीर के अंगों में मशीनों के पुर्जों में लगनेवाली जंग की तरह अकड़न छाने लगेगी।

आलस्य बुरी बला है। इससे बचना जरूरी है। आलस के कारण हमारा बहुमूल्य समय नष्ट हो जाता है। एक बार बीता हुआ समय या अवसर हाथ से निकल जाए तो फिर हाथ नहीं आता। बीता हुआ क्षण कभी लौटकर नहीं आता। समय को किसी बन्धन में आबद्ध नहीं किया जा सकता। उसे कदापि रोका नहीं जा सकता। घड़ी निरन्तर चलती ही रहती है। अतः समय नष्ट न कर, हमें सदा कुछ न कुछ काम करना ही बुद्धिमानी है। काम करने से, परिश्रम करने से हमारा कोई नुकसान नहीं होगा, बल्कि शरीर तन्दुरुस्त बना रहेगा।

कुछ आलसी लोग कहते हैं कि बिना श्रम किए हमें दूसरों के श्रम के फल को लूट लेना चाहिए। चार्वाक नीति है कि कर्ज करके घी पीते रहना चाहिए। भगवान की बनाई सृष्टि और उसकी कृपा का उद्धरण देते हुए दास मलूक ने कहा है --

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।

लेकिन अगर सभी व्यक्ति श्रम करना छोड़ दें और चकोर पक्षी की तरह आकाश की ओर मुँह बाये पड़े रहें कि भगवान आसमान से अन्न-जल टपका देंगे उनके मुँह में, तो फिर सारा संसार कैसे चलेगा? समस्त चेतन प्राणी जड़ नहीं बन जायेंगे? या फिर किसी काल्पनिक वैज्ञानिक कहानी की तरह ऐसी किसी एनर्जी टेबलेट का आविष्कार किया जाए, जिससे कि न तो भूख लगे, न प्यास, न टट्टी लगे न पेशाब। इससे आगे भी कुछ ऐसे आविष्कार के बारे में सोचा जा सकता है, जिससे कि सांस भी न लेना पड़े। इसका तो बड़ा सरल उपाय है -- आत्महत्या। अर्थात चेतन से जड़ बन जाना। पत्थर बन जाना।

संसार चक्र को स्वचालित रूप से चलते रहने के लिए भगवान ने समस्त चेतन प्राणी में भूख-प्यास की भावनाएँ सृजित की हैं और कर्म करने के लिए हाथ पैर दिए हैं। हर प्राणी को अपना भोजन तलाशना पड़ता है। चींटी से लेकर हाथी तक को। इसीलिए तुलसीदास ने रामायण में स्पष्ट किया है --

कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करे सो तस फल चाखा।।


अतः श्रम व कर्म को सर्वोपरि महत्व देते हुए सदा कुछ न कुछ कर्म करते रहना चाहिए। ऊर्जा को भंडारित नहीं किया जा सकता। लेकिन कर्मों के फल को धन या उपज में परिणत करके भंडारित किया जा सकता है। इस श्रम ऊर्जा को संस्कारों की बैटरी में भरा जा सकता है। कमाई गई धन-संपत्ति तो हम इस जन्म भर उपभोग कर सकते हैं, हमारे कई पीढ़ियों के वंशजों के लिए छोड़ सकते हैं, देश व समाज की भलाई में खर्च कर सकते हैं। किन्तु कमाया गया पुण्य हमारे आगामी जन्मों के लिए भी धर्मराज के खाते में जमा हो जाता है, जिसका हम जन्म-जन्मान्तर तक उपयोग कर सकते हैं। अतः निरन्तर श्रम या काम करते रहना चाहिए। कभी अपनी ऊर्जा एवं श्रम को बेकार नहीं खोना चाहिए।
क्योंकि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। अतः विद्वानों की शिक्षा है--
कल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होयगो, बहुरि करैगो कब??


किन्तु इसका भी विपरीत श्लोक बना लिया है कुछ आलसी-विद्वानों ने...
आज करे सो कल कर, कल करे सो परसों।
इतनी जल्दी क्या पड़ी है, जीना है बरसों॥
देश में आज भुखमरी फैली हुई है। क्यों? क्योंकि बेकारी फैली हुई है। लोगों के पास काम नहीं है। लोग काम की तलाश में ,नौकरी की तलाश में दर-दर भटकते हैं। श्रमिकों के दल-बल काम की तलाश में एक प्रान्त छोड़कर दूसरे प्रान्त की लम्बी यात्राएँ कर रहे हैं। रोजगार कार्यालयों में बेरोजगारों की सूचियाँ दिनों दिन लम्बी होती जा रही है।

दूसरी ओर देखें तो किसी काम के लिए हमें योग्य व्यक्ति नहीं मिलते। कभी किसी काम के लिए कोई मजदूर चाहिए तो हमें नहीं मिलता। यहाँ तक स्थिति पहुँच जाती है कभी, कि किसी पर्व पर भोजन कराने के लिए हमें कोई ब्राह्मण भी नहीं मिलता। कभी कभी तो दान लेने वाला कोई भिखारी भी कहीं दिखाई नहीं देता। देश भर में जहाँ नजर दौड़ायें, हर क्षेत्र विभिन्न परियोजनाएँ अधूरी पड़ी दिखाईं देती हैं। सारे काम अधूरे पड़े दिखते हैं। कोई काम करने वाला नहीं मिलता।

कहीं काम है, करनेवाले नहीं। कहीं करनेवाले हैं, पर काम नहीं है। कहीं काम मिल जाने पर लोग मुफ्त की रोटी पाना चाहते हैं। सरकारी नौकरी मिल जाने पर लोग आराम फरमाते हैं, अपना काम समय पर पूरा नहीं करते। कल-कारखानों में, सरकारी कार्यालयों में कर्मचारी आन्दोलन चल रहे हैं। असन्तोष व्याप्त है। श्रमिकों के अनुसार अधिकारीगण एवं मालिकगण उनका शोषण करते हैं, खुद आराम फरमाते हैं। अधिक सुख-सुविधाएँ भोगते हैं, संगठन का धन विभिन्न उपायों से हड़पते हैं और उन्हें सताते हैं। दूसरी ओर अधिकारीगण एवं मालिक यह आरोप लगाते हैं कि श्रमिक बेहक की मांग करते हैं। इतनी मजदूरी देने पर और बढ़ाने की मांग करते हैं और इसके बावजूद कामचोरी करते हैं। आलस करते हैं। कारखाने को नुकसान पहुँचाते हैं। मालिक एवं अधिकारीगण जिस प्रकार दिनरात अपने संगठन की गतिविधियों के प्रति चिन्ताग्रस्त रहते हैं, जिम्मेदारियाँ संभालते हैं, उसके विपरीत श्रमिकगणों को केवल अपनी मजदूरी मिलने से मतलब रहता है। वे संगठन के विकास के बारे में कुछ नहीं सोचते।

इन सारी समस्याओं के मूल की तलाश करने पर हम अन्त में इसी सारांश पर पहुँचते हैं कि श्रम ऊर्जा के प्रबंध में, समन्वय में, सही उपयोग करने में हमारे मानव संसाधन विकास के सिद्धान्तों या नीति में कुछ मूलभूत गलती छिपी हुई है, जो नजरों में नहीं आती। मानव-संसाधन-प्रबन्ध-शास्त्र श्रम और श्रमिक की सही परिभाषा करने में सफल नहीं हुआ है। श्रम ऊर्जा को संरक्षित करने के लिए किसी विशाल बैटरी की परिकल्पना तक नहीं कर पाया है। इसके लिए गीता में भगवान के मुख से उद्धृत कर्म की सही परिभाषा को जीवन में उतारने का प्रयास करना होगा --

कर्मण्येवाधिकारस्ते तु मा फलेषु कदाचन।

श्रमेव जयते! आइए! अब हम सब मिलकर उस विधि की तलाश करें जो हमारे समय और श्रम अर्थात् कर्म को इतनी सही रीति सरणीबद्ध कर सके कि हमारा एक भी क्षण बेकार न जाए, हमारी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक ऊर्जा जरा-सी भी व्यर्थ न हो पाए, हमारे कर्मों के फल निरन्तर संग्रहित होते रहें, इस जन्म के लिए धन - संपत्ति, सुख-शान्ति और आनेवाले जन्मों के लिए पुण्यों का अपार खजाना जमा होते रहे, और वह बैटरी निरन्तर चार्ज होती रहे।

शक्ति-अर्चना

जग की रचना की तब, नारी जो तूने ऐसी बनाई।
हे पावन परमात्मा! तुमको है लाखों लाख दुहाई॥

हे भाई‍‍! इन महामाया जी की बातें, तो मैं सुन चकराया।
पूर्णब्रह्म परमात्मा को भी, जिसने पग-पग नाच नचाया॥

साहित्यकारों की चाटुकारिता, जग को विभ्रम में यूँ डाला।
संग्राम समर में पूर्ण निपुण, नारी का नाम दिया क्यूँ अबला??

आठों अवगुण आठ पहर नित, इनके तन में बसा हुआ।
कामदेव धनुष सन्धाने, त्रिनेत्र भृकुटि पर सदा चढ़ा हुआ॥

हरि ने जब अवतार लिया तो, स्वयं राधिका बन आई।
कृष्ण के हाथ में दे बाँसुरी, प्रेम मदमाती धुन सुनवाई॥

ब्रह्मा और शंकर तो क्या, विष्णु भी इनसे न बच पाया।
भाग छिपे क्षीरसागर में, तो शेष सेज में बाँध सुलाया॥

नर हो चाहे नारायण, सब करें सदा गुलामी इनकी।
इसीलिए बड़े भाई जी, पीस रहे इनकी घनचक्की॥

जब साड़ी नई मिल जाती, तब झट लक्ष्मी बन जाती।
बैठ विष्णु के चरण चापती, नई छन छन छवि दिखलाती॥

हे बन्धु सुहृदवर सुनो, 'वो' नाता मत जोड़ो इनसे।
राम को वन में भेजा, दशरथ को मारा कुपद्रव से॥

शादी के पहले तो कन्या वह, दिखती बिल्कुल भोली-भाली।
पर हाय, शादी के बाद वह, निकलती पक्की गजब की गोली॥

कभी खिलखिल हँसती, कभी झिलमिल रोती, नित नवरूप दर्शाती।
कभी मन्द मन्द मुस्का हर्षाती, कभी कुटिल कटाक्ष तीर वर्षाती॥

कभी निर्लज्ज हो बनती शरारती, कभी शरमा कर सिर झुकाती।
नजरें उठाकर ज्यों गिराती, दिल पे गाज गिराती गजब ढाती॥

कभी बन्द न होती इनकी गप्पी, कभी साधती लम्बी चुप्पी।
मन के अन्दर मचे बवण्डर, मुँह फुला लेती ज्यों कुप्पी॥

गुस्सा होकर भड़भड़ बकती, सारा घर सर पर उठा लेती।
जल मरने की धमकी देती, कभी झट अपने मैके भग जाती॥

कहीं तपस्विनी, कहीं मन्दाकिनी, कहीं कुल कल्याणी कहलाती।
कहीं गंगा पावनी पापमोचनी, सबको निर्मल करती बहती॥

कहीं सर्पिणी, कहीं शेरनी, कहीं काली बन कलुष मिटाती।
कहीं सूपर्णखा, कहीं पूतना बनती, कहीं सती सीता बन जाती॥

कभी उन्मत्त, कभी अति संयत, कभी बन जाती शान्ति की मूर्ति।
जगजननी शक्ति शिवा बन, करती भक्तों की मनकामना पूर्ति॥

कभी गरजती, कभी चमकती, कभी करुणा बादल बरसाती।
कभी रण दुर्गावती बनती, झाँसी की रानी-सी तलवार चलाती॥

कभी ममता प्रेम से ओत-प्रोत, बनकर प्रेरणा स्रोत तारती।
सरस्वती, भगवती, पद्मावती, बन पार्वती पाती पूजा आरती॥

कभी डरती, कभी डराती, निज दूध पिला बच्चों को पालती।
सब कुछ वह बस, यूँ सह जाती, ज्यों धरती माता भारती॥

विचित्र चरित्र नारी का गाया, लिख-लिख कवि अब थक आया।
हे जग-निर्माता, इनकी माया, तू भी आज तक समझ न पाया॥

व्याप्त है ब्रह्माण्ड भर में, माया-मोह का इनका अति शासन।
काश! ये 'हरि' को मुक्त रखें, तो पूजूँ इनका पद-आसन॥

"सुधार हेतु सुझाव सादर आमन्त्रित हैं" - हरिराम

शक़ का भूमण्डलीकरण

जब राम वनवास के दौरान पंचवटी में निवास कर रहे थे। रावण ने स्वर्णिम मायामृग के वेश में मारीच को भेजा। सीता ने उसका सुनहरा चमड़ा पाने की इच्छा प्रकट की। राम उसका शिकार करने चले। लक्ष्मण से कह गए कि सीता की रक्षा करे एवं उसे छोड़ कर कहीं न जाए। अंत में राम के तीर से मायामृग ने मरते समय राम की आवाज की नकल करते हुए 'हा लक्ष्मण' 'हा लक्ष्मण' पुकारा। राम की दर्दनाक पुकार सुनकर सीता विचलित हो उठी। उसने लक्ष्मण से तुरन्त राम की सहायता के लिए जाने को कहा। लक्ष्मण ने कहा कि "माता राम का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आप निश्चिंत रहें, भैया का आदेश है कि मैं आपको छोड़ कहीं न जाऊँ।" लेकिन सीता का मन बिल्कुल नहीं माना। उसे लक्ष्मण पर ही सन्देह हो उठा। उसने लक्ष्मण को तिरष्कृत करते हुए कोसा -- "तुम कितने नीच हो, अपने भाई की संकट में पड़ी चीख सुनकर भी उसकी मदद को नहीं जाते। शायद, तुम्हारे मन में खोट आ गया है। तुम अपने भाई के मर जाने के बाद मुझे लेकर भाग ..... चाहते हो!"

अपनी माँ से कहीं ज्यादा सम्मान करते थे वे सीता का। उसी का इतना गंदा शक़ और कटु मर्म वचन सुनकर उनसे नहीं रहा गया। वे उठ चल दिए, भाई राम की सहायता करने को।
और सीताहरण... रावण मरण ... समग्र रामायण की कथा का कारण बना, यही सीता का शक़। यदि उसने लक्ष्मण पर शक़ न किया होता तो किसी को इतने दुःख न झेलने पड़ते।

शक़ एक बहुत बड़ा विकार है। विशेषकर महिलाओं के एक बड़े अवगुण के रूप में इसका बखान हुआ है। नारी को जगत्-जननी के रूप में पूजनेवाले तुलसीदास ने रामायण में रावण के मुख से कहलवाया, क्योंकि किसी सुपात्र के मुख से वे नारी निन्दा कराकर उसे पाप का भागी नहीं बना सकते थे --

नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुण आठ सदा उर रहहीं।।
संशय अनृत चपलता माया। भय अविवेक अशौच अदाया।।

अर्थात् नारी के हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं -- सन्देह, असत्य, चञ्चलता, माया, भय (डरपोकपन), अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता।

कुछ नारियाँ बहुत ही शक्की मिज़ाज की होती है। इसका कारण यह है कि कुछ दुर्घटनाओं से वे शारीरिक एवं मानसिक रूप से बहुत कमजोर हो गई होती हैं। यह बात नहीं कि पुरुष सन्देहशील नहीं होते। वे भी सन्देहशील होते हैं। पति-पत्नी के परस्पर सन्देह करने की अनन्तकाल से चलती आई घटनाएँ, एक स्वाभाविक प्रक्रिया बन गई है।

शक और सन्देह के आधार पर ही पुलिस हजारों निर्दोषों को पकड़ कर मार-पीट कर जीवन भर के लिए अपंग बना देती हैं। झूठे सन्देह के आधार पर पकड़ कर हजारों निर्दोषों को दण्ड दे दिया जाता है। तो सन्देह के लाभ में अदालतों से अनेक दोषी व्यक्ति सरेआम अभियोग से बरी हो छूट जाते हैं।

महाराजा दशरथ ने भी जंगली हिंसक जानवर समझ लेने का सन्देह करके श्रवणकुमार पर तीर चलाकर उसे मार डाला था, जिसका दण्ड श्रवण कुमार के माता-पिता के शाप से उन्हें जीवन भर भुगतना पड़ा। पुत्र वियोग सहकर मरे।

शक़ बड़ा ही घृणित अवगुण है। हर किसी पर हो जाता है। इसके कारण हैं विश्वास का अभाव एवं भय। आज के संसार में जब हर कहीं भय का वातावरण व्याप्त है। हर इन्सान किसी न किसी अवगुण से जड़ित है। हर कहीं अशान्ति है। किसी इन्सान का दूसरे इन्सान पर भरोसा नहीं रहा। यहाँ तक कि व्यक्ति को आज अपने आप पर भी सन्देह होने लगा है। अपने मन पर, अपनी शक्ति पर, अपनी बुद्धि पर भी इन्सान का विश्वास नहीं रहा। "पता नहीं मैं यह कार्य सफल कर सकूँगा या नहीं।"

आज शक़ का भूमण्डीकरण हो गया है। क्योंकि चारों ओर अन्याय, अत्याचार, पापाचार फैलने से आतंक व्याप्त है। चोरी, डकैती, बलात्कार आदि आए दिन होते रहते हैं। ट्रांजिस्टर बम, सूटकेश, घड़ी आदि में छुपे बम विस्फोट हो चुके हैं। सरकार द्वारा भी घोषणा की जाती है कि किसी लावारिस पड़ी चीज को न छुएँ -- पता नहीं किस वस्तु में बम फिट हो।

जनता का नेताओं पर विश्वास नहीं कि वे सचमुच जनता के हित में कार्य करेंगे। हर एक मंत्री या राजनेता के भ्रष्ट होने का सन्देह कर रही है जनता। यह स्वाभाविक है, क्योंकि अनेक नेताओं के भ्रष्टाचार के मामले पकड़े गए हैं। आज किसी नेता का भी जनता पर भरोसा नहीं रहा। पता नहीं यह जनता उसे चाहती है, उसे जिताएगी या नहीं। पता नहीं लोग कब रुख बदल कर किसी अन्य को अपना वोट दे जाएँ।

प्रबन्धकों को श्रमिक संघों को एकत्र होते देखकर सन्देह होता है कि पता नहीं ये कहीं हड़ताल आदि की योजना तो नहीं बना रहे। श्रमिकों को प्रबंधन पर सन्देह होता है कि कहीं ये तालाबंदी, छँटनी, उनके हित की हानि की योजना तो नहीं बना रहे। शंकालु मनों में हमेशा दरार पड़ी रहती है। नेताओं में परस्पर सन्देह व अविश्वास से बड़े बड़े संगठन भी टूट जाते हैं।
मंदिर के द्वार पर जूते खोलकर जाते वक्त भी हमें सन्देह होता है कि कहीं कोई चुरा कर न ले जाए।

किसी के प्रति जरूरत से ज्यादा दया दिखा दें, तो वही व्यक्ति दयालु पर सन्देह करने लगता है। किसी भिखारी को लोग पाँच पैसे देते हैं। यदि कोई उसे सौ का नोट पकड़ा दे तो वह यही सन्देह करेगा कि कहीं यह नोट जाली तो नहीं, कहीं वह दाता पागल तो नहीं। जनता की भलाई करनेवाले, अच्छे व्यक्ति की नीयत पर भी सन्देह होने लगता है। प्रेम के अतिरेक में अद्भुत त्याग करनेवाले प्रेमी पर उसकी प्रेमिका ही सन्देह कर बैठती है, उसे गलत समझती है, सारे रिश्ते तोड़ कर खुद तो विरह की आग में जलती है और सबको जलाती है।

कहीं आपने कोई नई बात कही, प्रचलित परम्परा के विरुद्ध, लीक से हटकर कुछ नया करने का प्रयास किया, नए आविष्कार कर जनहित का साहस किया, तो लोग सन्देह कर बैठते हैं -- कहीं इसमें कोई भयंकर चाल तो नहीं।

दूध का जला छाछ को भी फूँक फूँक कर पीता है। सन्देह होता है, डर लगता है कि कहीं इससे भी मुँह जल न जाए।

जो लोग डरपोक होते हैं उन्हें ही सन्देह ज्यादा होता है। कमजोरी भी व्यक्ति को सन्देहशील, चिड़चिड़ा, शंकालु व अति आशंकित बना देती है। कहीं मन्द प्रकाश में रस्सी पड़ी देखकर भी उसे साँप समझकर आशंकित हो घबरा जाता है। आशंकित मन व्याकुल होकर अपनों को भी परे कर लेता है।

जब किसी व्यक्ति पर संकट के बादल मण्डराने लगते हैं, उसे कहीं से धोखा मिलता है, वह टूट पड़ता है, तो उसे हर किसी पर सन्देह होने लगता है। अपने रक्षक पर भी सन्देह होने लगता है। आज के जमाने में किस पर क्या भरोसा? भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के अपने अंगरक्षकों ने ही उनको गोलियों से भून दिया था। फूल माला पहनाने के बहाने एक नारी ने प्रधानमंत्री राजीव गाँधी एवं स्वयं को आत्मघाती बम से उड़ा डाला था। अतः आज विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा हेतु हजारों कमाण्डो लगाए जाते हैं और करोड़ों रुपये खर्च होते हैं।

किसी बच्चे की चाकलेट में धूल या गन्दगी लगी देखकर उसकी माँ उसे रोककर चाकलेट साफ करके देना चाहती है, तो भी वह रो-चिल्लाकर विरोध करता है, उसे सन्देह होता है कहीं माँ चॉकलेट छीन तो नहीं लेगी। कोई कुत्ता कोई सूखी हड्डी लेकर भाग रहा होता है और उसे पानी में दूसरे कुत्ते की छाया भी दिख जाए तो सन्देह हो उठता है कि कहीं वह छीन न ले।

समग्र संसार विश्वास के आधार पर ही टिका है। सन्देह के कारण समग्र संसार का विनाश हो सकता है। यदि दो देशों को एक-दूसरे पर सन्देह गहराने लगे, अपनी असुरक्षा का संकट का सन्देह हो तो सामान्य सी घटना पर ही युद्ध छिड़ सकता है। और फिर यह विश्वयुद्ध में भी बदल सकता है।

सन्देहशील व्यक्ति अपना ही नहीं, अनेकों का नुकसान कर बैठता है। यदि मिसाइल का प्रचालन करनेवाले व्यक्ति की आँखें अचानक कमजोर हों जाएँ, उसे लाल व हरे बटन के हरे व लाल होने का सन्देह होने लगे तो उसकी अंगुली की एक गलत चाल समग्र विश्व को ध्वंश कर सकती है।

शंकालु व्यक्ति कहीं कोई भी कार्य सफल नहीं कर पाता। उसका भगवान पर से भी विश्वास उठ जाता है और भगवान तो विश्वास का ही दूसरा नाम है। अत्यन्त भाव-विह्वल भक्ति, प्रेम एवं आस्था से ही किसी के माध्यम से प्रकट होता है और अन्तर्मन को शान्ति देता है। उसके संकटों का निवारण करता है। शंकालु व्यक्ति की तो एकाग्रता ही नष्ट हो जाती है। वह ईश्वर की ओर ध्यान केन्द्रित ही नहीं कर पाता, शक्ति के अभाव में टूट जाता है। टूट कर बिखर जाता है। और बिखर कर दूसरों के पैरों के नीचे आ, उन्हें भी फिसला कर गिरा देता है।
जब किसी व्यक्ति या जाति या संगठन को हराना होता है, उसका नुकसान करना होता है, उस पर काबू पाना होता है, तो उस स्थान की बिजली पानी की लाइनें काट दी जाती है। बिजली और पानी आज के संसार में विशेषकर शहरी इलाकों में प्राण-स्वरूप हैं। इनके अभाव में हा-हाकार मच जाता है।

इसी प्रकार व्यक्ति के मन में उसके विश्वास व आस्था के आधार को दुश्मन सबसे पहले काटने का प्रयास करते हैं। उसके अपनों पर, उसकी शक्ति के स्रोत पर ही सन्देह पैदा करके बिछुड़ा देते हैं। और जब वह अशक्त हो, टूट कर अधमरा हो उठता है, तो उसपर काबू कर लेते हैं।

मुसलमानों ने सर्वप्रथम इस देश के मन्दिरों पर आक्रमण कर मूर्तियों को तोड़ कर इस देश की जनता की शक्ति के स्रोत ईश्वर पर से उनकी आस्था तोड़कर उन्हें अशक्त बना डाला था। तभी वे इस देश पर राज कर सके। आज भी अनेक विधर्मी लोग धर्मान्तरण कराकर इस देश की भोलीभाली जनता को अन्ततः राष्ट्रविरोधी कार्यों में उत्प्रेरित कर दे रहे हैं।

वैसे सन्देह भी जरूरी तो है ही, क्योंकि सन्देह के आधार पर ही दोषी की तलाश की जाती है। किन्तु केवल सन्देह के आधार पर कोई गलत कार्यवाही न करके, कोई पक्का प्रमाण पाने के बाद ही कार्यवाही करनी चाहिए।

एक कहानी है -- एक जंगल में एक यात्री थककर अनजाने में कल्पवृक्ष के नीचे बैठ गया। जैसे ही उसने सोचा कि पानी मिले, तुरंत पानी सामने आ गया। फिर उसने जैसे ही भोजन की इच्छा की, तो तुरंत भोजन सामने आ गया। अचानक उसे डर कर सोचा कहीं शेर आ जाए और मुझे खा जाए तो। तुरंत शेर आ उसे मार कर खा गया।

वैसे ही कभी कभी कैन्सर की आशंका से पीड़ित व्यक्ति को सचमुच कैन्सर हो जाता है। दृढ़ विश्वास से गोबर लेप कर भी कोढ़ी की रोगमुक्ति होने का दृष्टांत है। अतः भगवान की वाणी है कभी आशंकित मन से अशुभ सोचना तक नहीं चाहिए। व्यापारिक संगठनों के लिए उत्पादों की गुणवत्ता, लाभकारिता पर ग्राहकों का विश्वास, उनकी साख ही सबसे बड़ी पूँजी होती है।
आज इन्सान को भगवान पर भी विश्वास नहीं रहा। उसे हमेशा सन्देह बना रहता है कि अमुक देवता की पत्थर की मूर्ति क्या उसके संकट का निवारण कर पाएगी? यदि भगवान सचमुच में प्रकट हो जायें तो भी लोग कदापि उनपर विश्वास नहीं करेंगे। सन्देह करेंगे कि यह कोई पाखण्डी या पागल ही है। ज्यादा वर्षा से बाढ़ आने का सन्देह होने लगता है तो ज्यादा गर्मी से अकाल की आशंका होने लगती है।

अतः सर्वोपरि व्यक्ति को अपने आप पर से, अपनी क्षमता पर से, अपनी शक्ति पर से, और अपने भाग्य पर से, तथा भाग्याधिपति ईश्वर पर से विश्वास तिल मात्र भी कदापि नहीं तोड़ना चाहिए। यदि व्यक्ति ईश्वर पर ही सन्देह करने लगेगा, तो वह स्वयं ही नहीं, समग्र संसार को भी ले डूबेगा। व्यक्ति को हमेशा यह भरोसा रखना चाहिए कि ईश्वर की छत्रछाया सदा मेरे ऊपर है। वह कभी उसकी कोई हानि नहीं होने देगा। सदा ईश्वर पर सम्पूर्ण समर्पण भाव रखना चाहिए। हे प्रभु! मैं जो भी हूँ, जैसा भी हूँ, तेरा बच्चा हूँ, तेरी शरण में हूँ। अब तू चाहे मार, चाहे बचा। समग्र सृष्टि को अध्यात्म में एक नाटक माना गया है, जो पूर्व-निश्चित है, उसे कोई नहीं टाल सकता। ईश्वर की इच्छा के बिना कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। यह ज्ञान हमें आश्वस्त कर शान्ति व असीम शक्ति देता है।

संकटकाल में, दुर्दिनों में यही ईश्वर भक्ति एवं विश्वास ही हमें उबार सकते हैं। कम से कम एक सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति आस्थापूर्ण सर्वसम्बन्ध सदा दृढ़ता से कायम रखना चाहिए। तभी व्यक्ति के संकट मिटेंगे और उसके अच्छे दिन शीघ्र लौटेंगे।

लोग क्या कहेंगे?

बहुत पुरानी कहानी है :--

एक धोबी बाप-बेटा अपने गधे पर कपड़ों गठरी लादे चले जा रहे थे। उन्हें देख एक आदमी ने कहा - "देखो, कितने मूर्ख हैं। सवारी है फिर भी पैदल चले जा रहे हैं।" यह सुन बाप गधे पर बैठ गया, बेटा चलते हुए जाने लगा। कुछ आगे गए तो अन्य एक आदमी ने कहा - "देखो, छोटा-सा बेटा तो चलकर जा रहा है और बाप आराम से बैठा है।" यह देख बाप उतर गया और बेटे को गधे पर बैठा दिया। थोड़ा और आगे चलने पर लोगों ने कहा - "देखो, बूढ़ा बाप तो चल कर जा रहा है और जवान बेटा बैठा हुआ है।" यह सुन बाप-बेटे दोनों गधे पर बैठ कर जाने लगे। थोड़ा और आगे चलने पर लोगों के समूह ने कहा - "अरे, कितने कसाई हैं ये लोग! इतना बोझा ढोकर तो गधा मर ही जाएगा।"

यह सुन बाप-बेटे ने सोचा कि अब गधे को आराम देना चाहिए। उन्होंने गधे के अगले और पिछले पैरों में रस्सी बांधी और उसके बीच में एक डंडा फँसाकर उसे भार की तरह लाद कर ले जाने लगे। यह दृश्य देख तो लोग ठहाके पर ठहाका लगा उन्हें मूर्ख कहने लगे।

सचमुच यह दुनिया एक ऐसी नागिन है जो चलते हुए को डँसती है, सोए हुए को भी तो बैठे हुए को भी। किसी को नहीं छोड़ती। जितने मुँह उतनी बातें होती हैं। इस दुनिया रूपी नागिन को काबू में करना किसी के बस का नहीं।

लोग क्या कहेंगे -- इस डर से सभी डरते हैं। अपने आत्म सम्मान को बचाने के लिए अनचाहे, गैर-जरूरती काम करते हैं। लोकलाज की रक्षा के लिए विभिन्न लोकाचारों, परंपराओं का पालन करते हैं चाहे वे कितने ही अंधविश्वास पूर्ण क्यों न हों। और अपना काफी भयंकर नुकसान करते रहते हैं। दुःख में मरते रहते हैं।

कहा भी गया है चाहे कितना ही अच्छा काम क्यों न हो यदि वह लोकाचार के विरुद्ध है तो उसे कभी अच्छा नहीं कहा जाएगा। बड़े-बड़े वैज्ञानिक ही नहीं राजा-महाराजा भी लोकाचार के अनुसार अपनी इच्छा के विरुद्ध विभिन्न असहनीय कार्य करते हैं। भगवान राम ने भी एक धोबी के उलाहने पर अपनी प्रिय पत्नी सीता का परित्याग कर दिया। जबकि वे विश्वस्त थे कि सीता पूर्ण पवित्र है। क्योंकि वे स्वयं अग्नि परीक्षा कराके लाए थे। क्या वे धोबी को फाँसी पर नहीं चढ़ा सकते थे?

लोकतंत्र में लोगों की इच्छा सर्वोपरि मानी जाती है। ज्यादा लोग अगर गलत बात का पक्ष लें तो उसी को सही माना जाएगा। इसलिए कहा गया है कि प्रजातंत्र मूर्खों की सरकार होती है। भगवान राम लोकतंत्र को मान्यता देते रहे। मर्यादा पुरुषोत्तम होकर भी सदा दुःख झेलते रहे। हर क्षेत्र में आदर्श की स्थापना करने के बावजूद खुद दुःखी रहे तो दूसरों को भी एक प्रकार से दुःखी करते रहे।

इसी प्रकार लोग क्या कहेंगे, इसका ध्यान रखने वाला व्यक्ति पंगु बन कर रह जाता है। कोई नया कार्य नहीं कर पाता। कई उत्तम कार्य में संलग्न व्यक्ति भी लोगों की आलोचना सुनकर अपने लक्ष्य से पिछड़ जाते हैं। कोई कार्य कितना ही अच्छा क्यों न हो, चाहे कितने ही लोग उसकी प्रशंसा क्यों न करें, कोई न कोई तो उसकी आलोचना करेगा ही। इसलिए लोग क्या कहेंगे से डरने वाले व्यक्ति जीवन में कभी सफल नहीं हो सकते।

क्या इस दुनिया रूपी नागिन पर काबू पाने का कोई उपाय नही?

इसी के समाधान हेतु एक घटना उल्लेखनीय है। एक सँपेरन साँप को नचा रही थी। किसी ने पूछा "क्या तुमको साँप से डर नहीं लगता?" सँपेरन ने क्रोध में आकर कहा - "साँप मुझसे डरता है, मैं उससे नहीं।"

अतः देखा गया है कि जो लोग दुनिया से नहीं डरते, दुनिया उनके काबू में रहती है। सारी दुनिया उनके पीछे चलती है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के विपरीत कृष्ण का उदाहरण लें जिन्होंने कालिदमल के सिर पर नाच नाच कर उसको यमुना से भगा दिया। जो चोर भी कहलाए, रणछोड़ भी कहलाए, भँवरे भी कहलाए, गीताज्ञान के प्रवर्तक भी माने गए, तो 16,108 रानियों को अपनाये भी। असुर द्वारा अपवित्र जिन अबलाओं को कोई भी अपनाने के लिए तैयार नहीं हुआ उन्हें अपनी पटरानी बनाया। उन्होंने लोगों की परवाह नहीं की। इसीलिए सदा हँसते रहे, सबको हँसाते रहे। जीवन में सफल हुए।

कुछ सफल महापुरुषों का उदाहरण लें -- समाज सुधार को निकले स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वतंत्रता संग्राम में कूद अछूतोद्धार को निकले महात्मा गांधी, हिंदु संगठन के लिए निकले डॉ. हेडगेवार, .... आदि सभी को लोगों की हजारों आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। पर उन्होंने किसी की परवाह नहीं की, आगे बढ़ते रहे, इसलिए लक्ष्य में सफल हुए।

दूसरी और अमिताभ बच्चन को देखें। लोग क्या कहेंगे - इसकी परवाह न कर उन्होंने हर तरह का अभिनय किया। जोकर बन 'जिसकी बीवी मोटी ...' गाना गाया, तो वह गाना बच्चे-बच्चे की जुबान पर आ गया। सिने अभिनेता जैसी पोषाक पहनते हैं वह फैशन बन जाती है। लोग खुशी खुशी उसे अपना लेते हैं। एक फिल्म का गाना भी उल्लेखनीय है -- "खुल्लम-खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों, इस दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों।" वह गाना भी बच्चों की जुबान पर आ गया। अतः दुनिया से न डरनेवाले लोगों के पीछे दुनिया चलने लगती है। उसके इशारों पर नाचती है।

इसका मतलब यह नहीं है कि हम भी लोकलाज छोड़कर ऐसे अनोखेपन हेतु छिछोरे कार्य करें। और दुनिया रूपी नागिन को अपना अनुकरण करने व अपने गाने की धुन पर नचाने का प्रयास करें। हमें लोकाचार का पालन करना भी आवश्यक होता है। कार्यालय की मर्यादा का भी ख्याल रखना चाहिए। ऐसी कोई बात न करनी चाहिए जिससे कि हम उपहास के पात्र बनें। लेकिन यदि हमारा लक्ष्य सही है हम अपनी राह पर सही हैं तो हमें लोगों की आलोचना का ख्याल नहीं करना चाहिए। तभी हम जीवन में सफल हो सकेंगे और धुन के पक्के बन अपने मार्ग पर चलते रहे तो एक दिन लोग हमारे पीछे चलने लगेंगे।

भगवान की भूल...

एक विचारपति एक बार एक बरगद के पेड़ के नीचे लेटे हुए विचार कर रहे थे। उन्होंने सोचा-"सचमुच, भगवान बड़ा अन्यायी है। उसने कितनी बड़ी भूल की है। इतने विशाल बरगद के पेड़ को इतने नन्हें-नन्हें फल दिए, और उस बेचारी कुम्हड़े की बेल, जो अपने पाँव पर खड़ी भी नहीं हो पाती, उसको इतने बड़े फल दिए हैं। भगवान की यह बड़ी भूल है। उन्हें इसके लिए कड़ा दंड दिया जाना चाहिए।" भगवान को कैसे दंड दें? सोचा-- उनकी मूर्ति को उलटा लटकाकर कोड़ों से पिटाई की जाए?

इसी बीच बरगद का एक फल टूट कर विचारपति महोदय की नाक पर पड़ा। चौंक पड़े। फिर सोचा -- "अरे! यदि बरगद पर कुम्हड़े जैसे बड़े फल लगे होते तो आज मेरी नाक का क्या हाल होता? नाक तो नाक पूरा चेहरा ही पिचक गया होता। और मैं अभी सीधा भगवान के पास पहुँच गया होता।" उन्होंने तुरंत स्वीकार किया कि वास्तव में भगवान जो करता है, वह सदा ठीक ही करता है। उसका न्याय-तंत्र बिल्कुल उत्तम है।

क्या पाप है, क्या पुण्य है? क्या न्याय है, क्या अन्याय है? क्या धर्म है, क्या अधर्म? इन प्रश्नों पर विचार करते-करते हमारी बुद्धि दर्द करने लगती है। एक विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने से स्पष्ट होता है कि पाप और पुण्य, सही और गलत, धर्म और अधर्म का निर्णय देश, काल और पात्र के अनुसार अलग-अलग होता है। कुछ बातों का उदारहण लें --

अधिकांश सभ्य लोग चावल को उबालने के बाद माँड़ फेंक देते हैं और भात खाते हैं। कुछ आदिवासी माँड पी लेते हैं और भात फेंक देते हैं। शहरी लोग उन्हें मूर्ख समझते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो चावल के अधिकांश विटामिन-खाद्यसार माँड में ही रह जाते हैं।

हिन्दू गाय को माता समान मानकर उसकी पूजा करना ही धर्म मानते हैं तो मुसलमान और ईसाई गोमांस खाना अपना उचित समझते हैं। जीवन के हर क्षेत्र में मानव का हित करनेवाली गाय को माँ के समान पूजा करना धार्मिक भावना ही नहीं कृतज्ञता की भी अभिव्यक्ति है। दूसरी ओर इसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मुसलमान और ईसाइयों के लिए गोमांस सर्वोत्तम और शुद्ध मांस है, अन्य किसी पशु का मांस इतना शुद्ध नहीं होता। क्योंकि गाय कोई शुद्ध शाकाहारी होती है, कोई अभक्ष्य आहार नहीं करती।

पाप-पुण्य का निर्णय कभी कभी अत्यंत दुष्कर कार्य हो जाता है। जिसे हम पुण्य या धर्म-कार्य समझते हैं, वही वास्तव में पाप बन जाता है। एक उदाहरण प्रस्तुत हैं :

एक सेठ जी ने एक बार एक गाय दान में दी। पुण्य कमाना चाहा। लेकिन कुछ ही दिनों बाद उनका संपूर्ण कारोबार खत्म हो गया। कंगाल बन गए। उन्होंने बड़े-बड़े ज्योतिषियों, पंडितों से इसका कारण पूछा। एक ने ध्यान कर बताया -- 'यह आपके गोदान का फल है।' सेठ जी हैरान! कहा -- 'पर महाराज! गोदान तो परम पुण्य कार्य है।' ज्ञानी व्यक्ति ने कहा कि -- 'आपने जिस ब्राह्मण को गाय दान की थी, वह अपनी गाय को पाल नहीं सका, उसने वह गाय कसाई को बेच दी। जिसने उसे मार डाला। यह कुपात्र को दान देने के पाप का फल है।'

सेठ जी ने कहा -- 'परंतु महाराज! इसमें मेरा क्या कसूर? मुझे क्या मालूम था कि वह ऐसा करेगा।' ज्ञानी ने उत्तर दिया -- 'आप जान बूझकर जहर खायें या गलती से आपके भोजन में जहर मिला हो, शरीर पर दोनों का समान प्रभाव ही पड़ेगा।'

जाने-अनजाने हमसे अनेक गलतियाँ होतीं हैं। अतः हमें दूसरों की भूलें न निकाल कर अपना आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। परंतु अन्याय को होते देख चुप रहना भी एक प्रकार की गलती है। महात्मा गाँधी ने कहा था कि अन्याय को सहना अन्याय करने से भी बड़ा अपराध है।

बूँद बूँद मिल सागर भरता...

एक बार स्वामी ज्ञानानन्द जी एक वेद-विद्यापीठ के निर्माणार्थ दान में धनराशि संग्रह करने निकले। उन्होंने बहुत सुना था कि सेठ दानमल बड़े दानी हैं। एक दिन शाम को उन्होंने सेठ दानमल के भवन में प्रवेश किया। द्वारपाल ने उन्हें आदर के साथ बैठाया और प्रतीक्षा करने को कहा। इतने में बिजली चली गई। सेठ जी का नौकर मोमबत्ती जलाने लगा। उसने माचिस की एक तीली जलाई, पर वह बुझ गई। फिर उसने दूसरी तीली जलाई, वह भी बुझ गई। उसने फिर तीसरी तीली का प्रयोग कर मोमबत्ती जलाकर उजाला किया। माचिस की तीलियों की बरबादी देखकर सेठ जी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। नौकर पर अंधाधुंध गालियों की बौछार करने लगे।

स्वामी जी यह सब सुनकर अत्यंत निराश हुए। सोचा कि इतना कंजूस-मक्खीचूस व्यक्ति क्या दान देगा। यह सोचकर चुपचाप वहाँ से उठकर वापस आश्रम चले आए। किंतु दूसरे दिन सवेरे उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब सेठ दानमल जी का दीवान एक लिफाफा लिए सेवा में हाजिर था। दीवान ने कहा कि सेठजी के यहाँ से कल बिना बताये उनके चले आने पर, वे काफी दुःखी हुए। उन्होंने दान में यह चेक भिजवाया है। स्वामी जी ने लिफाफा खोलकर देखा कि उसमें एक लाख रुपये का एक चैक है और एक कागज की पर्ची, जिस पर मात्र एक पंक्ति लिखी हुई थी -"बूँद-बूँद मिलकर ही सागर भरता है।"
स्वामी जी को सेठ जी की समृद्धि और संपन्नता का राज समझ में आ गया। वे समझ गए कि मितव्यतिता और कंजूसी में कितना अंतर है।

सच ही है कि लक्ष्मी उसी के पास रहती है, जो उसे सम्हाल कर रखना जानता है। कहा गया है --

क्षणस्य कणस्य चैव विद्यामर्थम् चिन्तयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या, कणे नष्टे कुतो धनम्।।

अर्थात् हर क्षण-क्षण में विद्या और हर कण-कण में धन है सदा यह ध्यान में रखना चाहिए। यदि एक कण-कण नष्ट हो गया तो धन कहाँ बचेगा? यदि एक-एक क्षण भी नष्ट हुआ तो विद्या नहीं रहेगी?

कई सफल कम्पनियों में वित्त विभाग एक-एक पैसे के खर्च पर अत्यंत कठोरता के साथ आपत्तियाँ प्रकट करता है। आंतरिक अंकेक्षण एवं सतर्कता विभाग अत्यंत मुस्तैदी से लागत नियंत्रण हेतु कमर कसे प्रस्तुत रहते हैं। दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के विज्ञापनों, खेलों के आयोजनों, जनकल्याण व समाज-विकास कार्यों में करोड़ों रुपये प्रतिवर्ष अन्धाधुन्ध खर्च कर दिए जाते हैं, जो झूठी मान-शान का दिखावा मात्र लगते हैं और कर्मचारी-वर्ग की आँखों की किरकिरी बनते हैं, जिनके वेतन आदि में बढ़ोतरी व सामान्य सुविधा देने आदि के मामले में अनेक वर्षों तक संघर्ष, हड़ताल आदि के बिना प्रबंधन टस-से-मस नहीं होता।

आज कंपनी विपरीत परिस्थितियों में भी लाभ कमा रही है, यह हम सभी के कठोर परिश्रम और हर स्तर पर बर्बादी रोकने के प्रयासों का ही परिणाम है। चाहे वह समय की बर्बादी हो या धन की। बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता। "श्रमेव जयते" -- का नारा एक क्षण भी खोये बिना सदा कुछ कुछ न कार्य करते रहने से ही सफल हो सकता है। संपूर्ण गुणवत्ता प्रबंध का लक्ष्य तभी सफल हो सकता है, जबकि हरेक कर्मचारी सदा सतर्क रहे और हर स्तर पर बर्बादी और सार्वजनिक संपत्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए तत्पर रहे। चाहे कोई कितने ही बड़े ओहदे वाला क्यों न हो। कंपनी के धन के दुरुपयोग की घटना को तुरंत संबंधित प्राधिकारियों की जानकारी में लाना चाहिए।

संपन्नता और मितव्ययिता एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। जो ज्ञानी व्यक्ति होते हैं उनका एक भी संकल्प व्यर्थ नहीं जाता। अतः हमारी बौद्धिक और आर्थिक समृद्धि के लिए आवश्यक है कि हमारा हर क्षण शुद्ध संकल्प में लगे और हर कण का सदुपयोग हो।

वाहनों के प्रदूषण से बचाव का - एक उपाय

आज तीव्रगामी संसार में आरामपूर्ण जीवन शैली के प्रचलन के साथ स्वचालित वाहनों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है, जिनमें मुख्यतः पेट्रोल एवं डीजल का ईंधन रूप में उपयोग होता है। इन वाहनों से निकलनेवाले धुँए में कार्बन-डाई-ऑक्साइड, कार्बन-मोनो-आक्साइड जैसी विषैली गैसे होती हैं, जो मानव एवं जीव जन्तुओं के स्वास्थ्य के लिए घातक होती हैं। वायु में निरन्तर घुलते भारी जहर के कारण लोगों को श्वासजनित अनेकानेक बीमारियाँ लग जाती हैं। साँस उठना, नज़ला, गले व नाक-कान की बीमारियाँ, हृदय रोग, फेंफड़ों का खराब होना आदि अनेकानेक जानलेवा रोगों से शहरों में रहनेवाले अधिकांश लोग पीड़ित रहने लगे हैं, जिनका कोई सही इलाज संभव नहीं होता या ये बीमारियाँ लाइलाज होती हैं।

विशेषकर महानगरों एवं शहरों में वाहनों की संख्या अत्यधिक होने के कारण उनसे निकलनेवाले धुँए से चहुँओर वायु प्रदूषित रहती है। सड़कों तथा चौराहों पर तो साँस लेना तक दूभर हो जाता है। आँखों में जलन होना तो आम बात है।

वाहनों का धुँवा इनकी साईलेन्सर की नली के छोर से निकलता है, जिसका मुँह वाहनों के पीछे की ओर रहता है। पीछे की ओर हवा में जहरीले पदार्थ घुलते जाते हैं। और फिर इस नली का मुँह नीचे ओर झुका होने के कारण धुँए का तेज झोंका पहले सड़क पर टकराता है और अपने साथ सड़क की गन्दी धूल को भी लेकर हवा में उड़ाकर जहरीले तत्वों को कई गुना बढ़ा देता है। लोगों की नाक में यह धुँआ एवं गन्दी धूल घुसकर घातक प्रभाव डालती है।

सड़कों पर वाहन चलाते वक्त हमसे आगे चल रहे वाहन से निकलता धुँआ हमें अत्यन्त खराब लगता है और उस वाहन चालक पर क्रोध भी आता है कि वह अपनी गाड़ी का अनुरक्षण व देखभाल नहीं करता। मोबिल ऑयल सही प्रतिशत में क्यों नहीं डालता या ट्युनिंग ठीक नहीं करवाता। किन्तु हम यह बात नहीं सोचते कि हमारे वाहन से निकलनेवाला धुँवा हमारे पीछे चलनेवाले को कितनी हानि पहुँचाता होगा।

सबसे बुरी स्थिति होती है, जब चौराहों पर लाल बत्ती होने के कारण प्रतीक्षारत वाहन खड़े रहते हैं तो उनका इंजन स्टार्ट रहता है तथा उनसे निकलता धुँवा इतना अधिक गहरा होता जाता है कि आँखों में जलन होने के साथ साथ खाँसी भी आने लगती है एवं साँस उठना शुरू हो जाता है।

महानगरों के अत्यधिक ट्राफिक वाले कुछ चौराहों पर इतना अधिक प्रदूषण व्याप्त रहता है कि व्यक्ति को अपने नाक-मुँह पर मास्क लगाने के बावजूद शुद्ध हवा नहीं मिल पाती। गैस-मास्क का फिल्टर भी कुछ ही मिनटों में धूल व गन्दगी से अवरुद्ध होकर बेकार हो जाता है। विशेषकर चौराहों पर यातायात पुलिस कर्मियों का हाल सर्वाधिक बुरा होता है। गैस-मास्क भी उन्हें बचा नहीं पाते।

लगता है कि अब उन्हें अपनी पीठ पर ऑक्सीजन सीलेण्डर लादे यातायात नियन्त्रण की ड्यूटी निभानी पड़ेगी। जैसे समुद्र में गोताखोर अपनी पीठ पर ऑक्सीजन सीलेण्डर लादे नाक पर नली बाँधे गहरे समुद्र में उतरते हैं, जैसे अन्तरिक्ष यात्री अपने साथ ऑक्सीजन सीलैण्डर लटकाए रहते हैं, वैसे ही जोखिम भरा कार्य होगा चौराहों पर ट्रॉफिक पुलिस या होमगार्डों के लिए वाहनों के संचालन को नियंत्रित करना।

कुछ लोग मजाक में कहते हैं कि यदि किसी को मृत्युदण्ड देना हो तो गोली मारने या फाँसी देने की जहमत उठाने कोई आवश्यकता नहीं, उसे बस दिल्ली के आई.टी.ओ. चौराहे पर खड़ा कर देना चाहिए। वहाँ के भयंकर प्रदूषण से डरकर उसके प्राण स्वतः निकल भागेंगे।

प्रदूषण की इस जानलेवा समस्या को मद्देनजर रखते हुए यातायात पुलिस के लिए सौर-ऊर्जा चालित वातानुकूलित केबिन बनाए गए हैं, जिनमें बैठकर वे यातायात नियंत्रण कर सकें। लेकिन ये काफी मंहगे होने एवं इनकी अत्यन्त सीमित आपूर्ति होने के कारण पर्याप्त बचाव नहीं कर सकते। और फिर ट्राफिक नियमों का उल्लंघन कर भाग निकलने का प्रयास करनेवालों को पकड़ने या रोकने के लिए कुछ पुलिस कर्मियों को तो हर सड़क के जेबरा क्रॉसिंग के पास चहलकदमी करनी ही पड़ती है।

पेट्रोल एवं डीजल के धुँए से प्रदूषण को रोकने के लिए उच्चतम न्यायालय ने वाहनों को सी.एन.जी. से चलाने के आदेश जारी किए हैं, किन्तु इस सुविधा को वाहनों में लगाने के लिए भारी लागत आती है तथा सी.एन.जी. की आपूर्ति भी पर्याप्त न होने के कारण इस आदेश का कार्यान्वयन कठिन है। सी.एन.जी. का मूल्य भी हाल ही में काफी बढ़ा दिया गया है।

प्रदूषण से बचने के लिए आजकल मध्यमवर्ग के लोग भी मंहगी वातानुकूलित कारों या अन्य वाहनों का उपयोग करने लगे हैं। इनमें बैठे व्यक्ति तो प्रदूषण से बच जाते हैं किन्तु दूसरे लोगों के लिए पहले से दुगुना प्रदूषण फैला देते हैं। क्योंकि वातानुकूलन यन्त्र के संचालन के लिए इंजन द्वारा लगभग दुगुने ईंधन की खपत होती है और दुगुना प्रदूषण फैलता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की पर्यावरण परिषद ने भी यूरो-2/यूरो-3 मानक निर्धारित किए हैं जो वाहनों से निकलनेवाले प्रदूषण के स्तर को निम्नतम रखने की तकनीकी की सिफारिश करते हैं। हालांकि नए निर्मित होनेवाले वाहनों में ऐसी तकनीकी लगाई जा रही है। लेकिन संसार भर में अरबों की संख्या में चलनेवाले अरबों वाहनों को फेंका तो नहीं जा सकता। जैसे 15 वर्ष से पुराने वाहनों को दिल्ली जैसे महानगरों में चलाने पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। लेकिन फिर भी उनका उपयोग पूर्णतः बन्द नहीं हो पाया है। अतः पुराने वाहनों को महानगरों से निकाल कर अन्य शहरों एवं गाँवों में चलाया जाता है, जो वहाँ के वातावरण को प्रदूषित कर जहरीला बनाते हैं।

प्रदूषण कालियदमन नाग साँप की तरह समग्र संसार रूपी यमुना नदी को जहरीला बना चुका है। इससे मुक्ति के लिए लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं किसी कृष्णावतार की जो इसके मस्तक पर नाच-नाच कर इसे संसार से निकाल भगा दे तो संसार के लोग चैन की साँस लें।

वाहनों से निकलनेवाले पेट्रोल एवं डीजल के विषाक्त धुँए से लोगों को काफी हद तक बचाने के लिए एक सरल एवं कारगर उपाय यहाँ प्रस्तुत हैं ---

जिस प्रकार कल-कारखानों की चिमनी को काफी ऊँचा बनाया जाता है ताकि उनसे निकलने वाला धुँआ मानव, जीव-जन्तुओं एवं पेड़-पौधों को हानि न पहुँचाए और गहरी ऊँचाई पर हवा के तेज प्रवाह से ऊपरी स्तर में घुलकर निष्क्रिय हो जाए। उसी प्रकार यदि वाहनों के साईसेन्सर-पाइप को ऊपर की ओर मोड़ कर यथासंभव ऊँचाई तक बढ़ा दिया जाए तो धुँआ ऊपर की ओर प्रवाहित होगा। पीछे आनेवाले लोगों के नाक-मुँह से टकराकर सीधे साँस द्वारा फेंफड़ों में प्रवेश नहीं करेगा।

इसके उदाहरण-स्वरूप ट्रेक्टर वाहन को देखें, जिसका साईलेन्सर पाइप ऊपर की ओर निकला रहता है, और धुँआ ऊपर की ओर उड़ता है। न तो पीछे आनेवाले व्यक्ति की साँसों में सीधे जाता है और न ही धरती पर हवा के निचले स्तर को प्रदूषित करता है।

इस उपाय को कार्यान्वित करने में कोई तकनीकी जटिलता भी तो नहीं दीखती है। साईलेन्सर पाइप में ऐसा एक एक्सटेन्शन पाइप मात्र जोड़ने की जरूरत है सौ या दो सौ रुपये मात्र की लागत से हो सकता है।

प्रदूषण नियंत्रण विभाग द्वारा इस सम्बन्ध में तत्काल एक आदेश जारी करके सर्वप्रथम भारी वाहनों -- ट्रक, बस, डोजर, डम्पर आदि इसे लागू किया जाना चाहिए कि उनके साईलेन्सर पाइप में एक्सटेन्शन पाइप जोड़कर धुँए को यथासंभव ऊपर की निष्कासित करने की व्यवस्था की जाए। फिर कार, जीप आदि में इसी उपाय को लागू किया जा सकता है। दुपहिया व तिपहिया वाहनों में भी इस संबंधी आदेश को तत्काल लागू किया जाना चाहिए। क्योंकि वे भी वातावरण को कोई कम प्रदूषित नहीं करते।




नए बननेवाले समस्त वाहनों की साईलेन्सर निकास नली को मूलतः फैक्टरी से ही यथासंभव अधिकाधिक ऊपर की ओर निकालने के बारे में आदेश जारी किए जाने चाहिए।

हालांकि इस उपाय से धरती का प्रदूषण तो कम नहीं होगा, लेकिन सड़कों पर चलते या चौराहों पर लाल बत्ती के कारण खड़े वाहनों से निकलनेवाला प्रदूषक जहरीला धुँवा यथासंभव ऊपर की ओर उड़ेगा तथा कम से कम पीछे खड़े वाहन या व्यक्ति की नाक से सीधे टकराकर उसके फेंफड़ों में जहर नहीं घोलेगा। ट्राफिक पुलिस कर्मियों को साँस लेने में कोई कठिनाई नहीं होगी और वे अपना कर्त्तव्य सही रीति निभा पाएँगे।

यह सरल एवं कारगर उपाय विश्वभर के लोगों को त्रस्त कर देने वाली अनेक बीमारियों एवं तकलीफों से बचा सकता है। क्योंकि धरती से कम से कम 6 से 10 फुट की ऊँचाई तक का हवा का स्तर प्रत्यक्ष प्रदूषण से बचा रह सकेगा, जिसमें अधिकांशतः मानव पैदल चलते हैं, साईकल, रिक्शा जैसे प्रदूषण-रहित वाहनों से यात्रा करते हैं।
इस सरल एवं सस्ते उपाय को कार्य में परिणत करवाने तथा इस बारे में जन-जागृति हेतु व्यापक प्रचार की जरूरत है। वायु प्रदूषण सबसे बड़ा पाप है तो इससे बचाव का प्रयास वस्तुतः सबसे बड़ा धर्म होगा। अतः जनहित में इस विचार के व्यापक प्रचार में सभी से सहयोग की अपील है।

14 Feb 2007

सबसे बड़ा पाप - वायु प्रदूषण

इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में यह प्रश्न सबके सामने मुँह बाये खड़ा है -- सबसे बड़ा पाप क्या है? आधुनिक युग का सबसे बड़ा पाप माना जाएगा -- "वायु प्रदूषण"

कुछ लोगों को यह बात अवश्य आश्चर्य-जनक लगेगी। लेकिन यह एक कटु सत्य एवं सही तथ्य है। वैसे तो प्रदूषण फैलाना अपने आप में बुरी बात है, इसलिए पाप है। लेकिन सबसे बड़ा पाप है - वायु प्रदूषण।

क्योंकि, इन्सान ही नहीं, बल्कि कोई भी जीव भोजन के बिना कुछ दिन जीवित रह सकता है, पानी के बिना कुछ घण्टे जीवित रह सकता है। किन्तु साँस लिए बिना कुछ मिनट ही शायद जीवित रह पाए। जीने के लिए प्राणवायु जरूरी है। अर्थात् ऑक्सीजन जरूरी है।

वायु-प्रदूषण से मानव की साँस में घुलकर अनेक भयंकर जहरीले तत्त्व प्रवेश कर जाते हैं और व्यक्ति आजकल कई भयंकर एवं लाइलाज बीमारियों का शिकार होता जा रहा है। इन्सान दुर्बल, अशक्त एवं तेजहीन ही नहीं होता, बल्कि उसका जीवन अपंग भी हो जाता है। हृदय रोग, श्वास रोग, खाँसी, सर्दी, जुकाम, निमोनिया, आँखों की ज्योति का धीमा पड़ना, उल्टी, चक्कर आना, रक्त अशुद्ध होना, कैन्सर, वात आदि अनेकानेक असाध्य व गम्भीर रोगों का मूल कारण है, अशुद्ध हवा में साँस लेना।

वायु प्रदूषण कई रूपों में होता है। गाड़ी, मोटर आदि के ईंधन पेट्रोल व डीजल के जलने से निकलनेवाला धुआँ वायु-प्रदूषण का एक बड़ा कारण है। कुछ महानगरों के चौराहे का प्रदूषण मशहूर हो गया है। यहाँ पर 10-15 मिनट खड़ा होने पर व्यक्ति की आँखों में जलन व खाँसी आने लगती है। कल-कारखानों में कोयला व अन्य ईंधन के जलने से निकलनेवाला धुँआ प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है।

कुछ उद्योगों में उपयोग किए जानेवाले कुछ रसायनिक पदार्थ अत्यन्त जहरीले होते हैं। जिनका रिसाव हवा में तीव्र जहर घोल देता है। भोपाल गैस काण्ड में हुई हजारों लोगों की मौत इतिहास की एक कलंकमय घटना बन गई है।

शहरों में लोग जहाँ तहाँ कूड़ा-करकट, अधसूखे घासफूस, पत्तियाँ, लकड़ी, कागज, प्लास्टिक, कोलतार, टायर आदि जलाकर जहरीला धुआँ फैलाते रहते हैं, जो हजारों लोगों को चिरकालिक असाध्य रोगों का उपहार दे जाता है। इसी तथ्य को मद्देनज़र रखते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय के आदेश से मुम्बई, बैंगलोर आदि नगरों में कूड़ा-करकट को जलाने पर प्रतिबन्ध लगाया हुआ है, इसके उल्लंघन पर कठोर दण्ड दिया जाता है। कूड़ा-करकट का पुनः उपयोग करके इससे खाद, बिजली व ईंधन-केक भी बनाई जाती है। अब सभी शहरों में ऐसे कानून लागू किए जाने आवश्यक हो गए हैं। इसका अनुकरण करते हुए समस्त नगर निगमों तथा नगरपालिकाओं द्वारा मानव बस्ती से 3 कि.मी. के दायरे में कूड़ा-करकट जलाने पर प्रतिबन्ध लागाया जाना चाहिए और इसका उल्लंघन करनेवाले को भारी आर्थिक दण्ड का जुर्माना लगाने तथा कारावास की सज़ा का प्रावधान होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि कई नगम निगमों के कर्मचारी (तथा ठेके के कर्मचारी) स्वयं ही कूड़ा-करकट को उठाकर ले जाने के परिश्रम से बचने के लिए जहाँ-तहाँ गलियों में इकट्ठा करके इसे जला देते हैं, जो काम सिर्फ एक माचिस की तीली जलाने भर में हो जाता है। जो कई घण्टों तक सुलगता रहता है और वातावरण की वायु को जहरीला बना देता है। किन्तु इससे वहाँ रहनेवाले, आने-जानेवाले लोगों को विषाक्त वायु की साँस लेने को मजबूर होकर जहर के घूँट पीने पड़ते हैं।

आजकल प्लास्टिक के कचरे सर्वाधिक पर्यावरण हानि होती है, क्योंकि यह शीघ्र नष्ट नहीं होता। प्लास्टिक के कूड़े के जलने से तो वायु अत्यन्त जहरीली बन जाती है।

अनेक शहरों के कूड़े करकट से पुनःचक्रित (recycle) करके इससे खाद, बिजली, तथा उपयोगी वस्तुएँ बनाई जाती हैं। बैंगलोर शहर में तो प्लास्टिक के कूड़े को गर्म कोलतार (डामर) में डालकर पिघला कर मजबूत सड़कें तक बनाने का प्रयोग किया गया है। हर शहर में ऐसी व्यवस्थाएँ होनी चाहिए।

कुछ लोग सार्वजनिक स्थलों, रेल व बस में बीड़ी-सिगरेट पीकर स्वयं ही विषपान नहीं करते, बल्कि घातक धुआँ उड़ाकर दूसरे लोगों में भी जबरन विषैली गैस प्रविष्ट करवा देते हैं। इससे खाँसी, सिरदर्द से लेकर केन्सर तक बढ़ते हैं। 'धूमपान निषेध' के बोर्ड लगे होने के बावजूद तत्संबंधी नियमों का खुलेआम उल्लंघन होता है। इस दिशा में जनजागृति आवश्यक है कि ऐसे लोगों को सामाजिक तिरस्कार किया जा सके।

वैज्ञानिक अनुसन्धानों से पता चला है कि परोक्ष धूमपान (passive smoking) स्वयं धूमपान करने से भी कहीं अधिक हानिकारक होता है। कई उदाहरण ऐसे मिले हैं कि धूमपान करनेवाले व्यक्ति को तो कोई विशेष बीमारी नहीं हुई, लेकिन उसकी पत्नी को कैन्सर हो गया। क्योंकि धूमपान करनेवाला व्यक्ति तो शुद्ध ऑक्सीजन के साथ तम्बाकू पीता है, और अशुद्ध कार्बन-डाई-ऑक्साइड के साथ निकोटिन जहर हवा में छोड़ता है, जिसे अन्य लोगों को मजबूरन साँस में निगलना पड़ता है, जो अत्यन्त हानिकारक है।

अतः हमारा श्लोगान है:

पान खाओ तो मीठा पान खाओ, पीक निगल लो,
आपको जहाँ तहाँ, थूकने का कोई अधिकार नहीं।
बीड़ी, सिगरेट पीओ शौक से, पर धुआँ निगल डालो,
जहाँ-तहाँ जहर उगलने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं॥


हमारा सुझाव है :

विभिन्न बाजारों में, रेल गाड़ी में, कार्यालयों में एक विशेष कक्ष 'धूमपान बार' (Smoking Bar) होना चाहिए। जो एयर कण्डीशण्ड हो, जहाँ बैठकर उन्मुक्त धूमपान किया जा सके और वहाँ धूमपान का धूम बहुकाल तक टिकाऊ बना रहे। ताकि जिस व्यक्ति के पास बीड़ी-सिगरेट खरीदने के लिए पैसे न हों, वह भी यदि उस कक्ष में प्रवेश मात्र कर जाए तो वह स्वतः धूमपान की धूम-सेवन कर सके।

कुछ लोग सड़कों के किनारे मल-मूत्र विसर्जित करके भी भारी वायु प्रदूषण फैलाते हैं। कुछ विदेशी टिप्पणी करते हैं - सड़कों और रेलमार्गों के किनारे टट्टी बैठना ही तो भारतीय संस्कृति है। जहाँ-तहाँ पड़े जीव जन्तुओं के सड़ते हुए शव घातक वायु प्रदूषण करते हैं। इससे महामारी व प्लेग जैसे कई छूत के रोग फैल कर हजारों लोगों का जीवन संकट में डालने का खतरा पैदा होता है। शवों को तत्काल आधार पर दफ़नाकर या दाह करके अन्तिम संस्कार करना चाहिए। सूखी मछली (सुखुआ) भी आसपास के क्षेत्र में काफी दुर्गन्ध फैला कर हवा को गन्दा करती है।

शहरों में गन्दे खुले नाले भी दुर्गन्ध सृजित करके भारी वायु प्रदूषण फैलाते हैं। हालांकि आजकल भूमिगत मल निकास नालियों का प्रचलन बढ़ता जा रहा है, लेकिन रख-रखाव व्यवस्था के अभाव में ये जब तब टूट जाती है या अवरुद्ध होकर सड़कों पर मलजल बहता रहता है, जो वायु प्रदूषण का एक प्रमुख कारक है।

आधुनिक युग के परमाणु अस्त्रों के बाद आजकल अनेक रसायनिक अस्त्र-शस्त्र बन रहे हैं, जो दुश्मन देश की वायु में जहरीले तत्व फैलाकर मानव व जीव ही नहीं, बल्कि पेड़-पौधों तक को नष्ट कर सकते हैं। पृथ्वी के कई स्थलों पर ओजोन परत में विशाल छेद हो गए हैं, जिससे महातूफान आदि प्राकृतिक विपत्तियाँ आए दिन आती रहती हैं।

वायु प्रदूषण के कारण ही आज तेजाबी वर्षा होने के समाचार मिलते हैं। बादलों में भी प्रदूषण भर जाने से वर्षा के जल में भी दूषित कण विद्यमान रहते हैं, जो जीव-जन्तुओं ही नहीं फसल को भी नष्ट कर सकते हैं।

आजकल स्वास्थ्य के लिए योगासन और प्राणायाम का बड़े जोर-शोर से प्रचार हो रहा है। प्राणायाम साँस लेने छोड़ने की विशेष प्रक्रिया मात्र है। प्राणायाम से अनेक रोगों का नाश होने के साथ साथ शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक उत्थान होता है। लेकिन यदि अशुद्ध वायु में प्राणायाम किया गया तो लाभ के वजाए भयंकर हानि हो सकती है।

कई कारखानों/संयंत्रों में प्रदूषण नियंत्रण के लिए करोड़ों रुपये से अधिक खर्च किए गए हैं। धुँवा, धूल व अपशिष्टों के निपटान के लिए सुरक्षित उपाय किए गए हैं। खान में उत्खनित भूमि को फिर से भरकर उस पर व्यापक रूप से फलों आदि के पेड़ लगाए जाते हैं। उड़नशील राख, लाल पंक, चूना-कंकरी आदि का उपयोग करने हेतु नए नए अनुसंधान किए जा रहे हैं।

लाखों लोगों के जीवन को क्षति पहुँचाना सचमुच में सबसे बड़ा पाप है। आइए, इस पाप से स्वयं बचें एवं औरों को भी बचाएँ। इससे बचने के उपायों की तलाश करें।

सबसे बड़ा धर्म :

वायु शुद्धिकरण आज के युग का सबसे बड़ा धर्म माना जाएगा। वायु शुद्धिकरण का सबसे बड़ा साधन है पेड़-पौधे व वनस्पतियाँ, जो कार्बन-डाई-ऑक्साइड को सोखकर ऑक्सीजन विसर्जित करते हैं। यज्ञ व हवन से भी वायु शुद्धि होती है।

प्राचीन काल से ही वृक्षों की पूजा की जाती रही है। धर्मशास्त्रों में बरगद और पीपल के पेड़ लगाने को परमधर्म माना गया है। अब वैज्ञानिक शोध से भी प्रमाणित हुआ है कि पीपल का पेड़ केवल दिन में ही नहीं, बल्कि रात में भी ऑक्सीजन देता है। आइए, अधिकाधिक संख्या में पीपल के पेड़ लगाएँ और सबको प्रेरित करें।